Friday, April 30, 2010

..........टिप्पणीकार जाहिल हैं ????

क्या टिप्पणीकार जाहिल हैं ? .... क्या पोस्टों पर वाह वाही करने वाले जाहिल हैं ? ... यह प्रश्न मैं नहीं उठा रहा हूं ... वरन एक फ़र्जी आई डी बनाकर दर दर भटक रही "Jyotsna" ने अभिव्यक्त किये हैं उसके विचार ब्लाग : - "बिना लाग लपेट जो कहा जाए वही सच हैं" की पोस्ट "पढे लिखे जाहिल"?? मे टिप्पणी स्वरूप दर्ज हैं जो इस प्रकार हैं :-"यदि आपको घटिया पोस्टों पर वाहवाही करने वाले जाहिल देखने हों तो कृपया इस लिंक पर जाएँ http://kaduvasach.blogspot.com/2010/04/blog-post_29.html " ... इस फ़र्जी "Jyotsna" ने पिछली पोस्ट "उठा पप्पू पटक पप्पू डाट काम !!!" पर फ़र्जी टिप्पणी दर्ज की थी जिसे डिलिट कर दिया गया था ... "खुजली" होने पर वह फ़िर दो-तीन बार आ गई/गया ... एक तो फ़र्जी काम, और बे-वजह दर दर भटकना .... "पढे लिखे जाहिल??" पोस्ट से किसका भला हुआ है?

... दर दर भटकना ... यहां तक तो ठीक है पर अब उसकी "खुजली" इतनी ज्यादा हो गई है कि वह किसी एक से शांत होने वाली जान नहीं पडती है ... इसलिये ही उसने इस बार सारे ब्लागजगत के पाठकों/टिप्पणीकारों को ही "जाहिल" कह कर आमंत्रित किया है ... अरे आमंत्रित क्या किया वरन खुले रूप से ललकारा है ... देखो भाई .... जरा गौर से देखो .... कौन है ये Jyotsna जो अपनी खुजली (खुजली अर्थात दिमागी कीड़ा के काटने से उपजी पीडा से है !!!) मिटवाने कमर मटकाते दर दर भटक रही है ... देखो अगर कोई है उसका तो संभाल कर रखो कहीं ऎसा हो कि .... बाद में लेने-के-देने पड जाये !!!

Thursday, April 29, 2010

उठा पप्पू - पटक पप्पू - डाट काम !!!

लफ़डा - झपडा
तिकडम - बिकडम
आडा - तिरछा
रेलम - पेल

लंबू - मोटू
हंसी - ठिठोली
अप्पू - गप्पू
धक्का - मुक्की

गिल्ली - डंडा
ढोल - नगाडे
अटका - पटकी
सरपट - रेल

सटका - सटकी
नंग्गे - लुच्चे
इक्की - दुक्की
गुल्ला - मैम

लाग इन
उठा पप्पू
पटक पप्पू
डाट काम !!!

Wednesday, April 28, 2010

... ब्लागवाणी पर "नापसंदी लाल" लोगों का गिरोह सक्रिय !!!

क्या बात है ... ब्लागजगत में कचरे का ढेर .... हां भईये, ये बिलकुल सच है ... कचरे का ढेर ... अब क्या कहें कुछ लोगों को व्यवस्था को बिगाडने में ही मजा आता है .... आजकल ब्लागवाणी पर "नापसंदी लाल" लोगों का गिरोह ... जी हां, "नापसंदी लाल" लोग पोस्टों तथा चिट्ठों का "कबाड" करने में युद्ध स्तर पर सक्रिय हैं ... क्या मिलता है उन्हें ... कुछ नहीं ... बस मजा आता है ... अरे भाई, जब मजा ही लेना है तो कुत्ते की दुम पकड कर झूल जाओ ... झूला भी झूल लोगे और मजा भी ले लोगे ... नहीं तो कुत्ता जरुर मजा चखा देगा ... कम से कम देखने वाले भी "सर्कस" का लुत्फ़ उठा लेंगे ...

... "नापसंदी लाल" लोगों से सिर्फ़ एक ही सवाल है जब ब्लाग व पोस्ट पर "टिप्पणी" की सुविधा है तो उस पर अपनी स्पष्ट राय पसंद अथवा नापसंद दर्ज क्यों नहीं करते ? ... जब प्रत्यक्ष रूप से नापसंद की राय दर्ज की जायेगी तो ब्लागर भी अपने लेखन में सुधार का प्रयास करेगा ... मगर "नापसंदी लाल" लोग ऎसा करने की हिम्मत नहीं करेंगे ... शायद डरते हैं ... शायद-वायद नहीं ... "नापसंदी लाल" लोग सचमुच कायर हैं जो छिपकर ही "नापसंद" का चटका लगायेंगे, खुलकर "टिप्पणी" देने से डर जो लगता है ... हो सकता है सोचते हों, कौन बुराई ले ...

... "ब्लागवाणी" के कर्ता-धर्ता जरा आप भी सुन लो जब "पसंद/नापसंद" के गुप्त मतदान की व्यवस्था रखे हो, तो "नापसंद ब्लागर" का भी एक "रेंकिंग" बना दो ... कम से कम जो ब्लागर "नापसंदी लाल" लोगों की नजर में अच्छे नहीं हैं उनको भी कहीं तो "रेंकिंग" में ऊपर जगह मिल जायेगी .... और "नापसंदी लाल" लोग देख-देख कर खुश हो लेंगे ... चलो आज देख लेते हैं कि कितने लोग इस पोस्ट पर नापसंद का चटका लगाते हैं ... कम से कम ये तो पता चल जायेगा कि "नापसंदी लाल" लोगों के गिरोह में कितने "कायर" शामिल हैं ...

... साथ ही साथ "ब्लागवाणी" से भी आग्रह है कि "नापसंदी लाल" लोगों की सूची जो "सिस्टम" में अपडेट हो रही है किसी दिन उसे भी उजागर .... ताकि "नापसंदी लाल" खुद की जय जय कार के नारे कैसे लगाते हैं जरा हम भी देख लें .... फ़िलहाल तो हम ही कह देते हैं ... जय जय "नापसंदी लाल" !!!!

Monday, April 26, 2010

"मुफ़्त की नसीहतें"

तीन दोस्त बहुत दिनों बाद मिले ... मिलकर खुश हुये ... जिंदगी के सफ़र पर चर्चा शुरु ... क्या कर रहा है ... क्या हालचाल है ... सफ़र कुछ ऎसा था कि दो अमीर हो गये थे धन-दौलत बना ली थी तथा एक अपनी सामान्य जीवन शैली में ही गुजर-बसर कर रहा था ... उसकी भी बजह थी वह कहीं किसी के सामने झुका नहीं ... नतीजा भी वही हुआ जो अक्सर होते आया है, जो झुकते नहीं अपने ईमान पर अडिग होते हैं, जी-हजूरी व दण्डवत होने की परंपरा से दूर रहते हैं उन्हें कहीं-न-कहीं जिंदगी की "दौलती दुनिया" में पिछडना ही पडता है ...

... खैर ये कोई सुनने-सुनाने वाली बातें नहीं है लगभग सब जानते हैं .... हुआ ये कि दोनो सफ़ल दोस्त मिलकर तीसरे पर पिल पडे .... देख यार ये ईमानदारी व सत्यवादी परंपरा किताबों में ही अच्छी लगती है .... थोडा झुक कर, चापलूसी कर, समय-बेसमय पैर छूने में बुराई ही क्या है ... अपन जिनके पैर छूते हैं वे किन्हीं दूसरों के पैर छू-छू कर चल रहे होते हैं ये परंपरा सदियों से चली आ रही है ... चल छोड, ये बता नुक्सान किसका हो रहा है ... तेरा न, उनका क्या बिगड रहा है ... वो कहावत है "तरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू तरबूजे पर गिर जाये कटना तो तरबूजे को ही पडता है" ...

... देख यार अपने बीवी-बच्चों के लिये, शान-सौकत के लिये थोडा झुकने में बुराई ही क्या है ... देख आज हमने पचास-पचास लाख का बंगला बना लिया, दो-दो एयरकंडिशन गाडियां हैं बच्चों के भविष्य के लिये पच्चीस-पच्चीस लाख बैंक में जमा कर दिये ...और तू ... आज भी वहीं का वहीं है ... खैर छोडो बहुत दिनों बाद मिले हैं कुछ "इन्जाय" कर लेते हैं....

... सुनो यार बात जब निकल ही गई है तो मेरी भी सुन लो जिस काम को तुम लोग परंपरा कह रहे हो अर्थात किसी के भी पैर छू लेना, जी-हजूरी में उनके कुत्ते को नहाने बैठ जाना, चाय खत्म होने पर हाथ बढाकर कप ले लेना, और तो और जूते ऊठाकर दे देना बगैरह बगैरह .... आजकल लोग बने रहने के लिये किन किन मर्यादाओं को पार कर रहे हैं ये बताने की जरुरत नहीं समझता, तुम लोग भली-भांति जानते हो और कर भी रहे हो .... रही बात मेरी ... तो मैं अपनी जगह खुश हूं ... जानता हूं चाहकर भी मैं खुद को नहीं बदल सकता .... ये "मुफ़्त की नसीहतें" जरा संभाल के रखो अपने किसी चेले-चपाटे को दोगे तो कुछ पुण्य भी कमा लोगे !

सत्य

संत
अंत में है खडा
पास खडे
सब दुष्ट

राजा
असत्य को
कैसे भेदे
दूर खडा है
'सत्य' ।

Sunday, April 25, 2010

...... ब्लागजगत व ब्लागर साथियों को शुभकामनाएं !!!

मेरी पिछली पोस्ट पर "टिप्पणी" दर्ज कर डा.रूपचन्द्र शास्त्री जी द्वारा "बडप्पन" का परिचय प्रस्तुत किया .... आभार .... अब मेरे दोनों सम्माननीय ब्लागर ललित शर्मा जी तथा डा.रूपचन्द्र शास्त्री जी नई ऊर्जा के साथ ब्लागजगत को नई ऊचाईंया प्रदाय करेंगे ...... ब्लागजगत व ब्लागर साथियों को शुभकामनाएं ..... विवादों को पूर्णविराम .... नई ऊर्जा ... नये स्नेह ... नये जज्बे के साथ .....नई राहें ... नई मंजिलें .... बधाईंया व शुभकामनाएं ..... इस अवसर पर मेरा एक "शेर" प्रस्तुत है : -
"चलो आये, किसी के काम तो आये
किसी दिन, फ़िर किसी के काम आयेंगे ।"

पिछली पोस्ट पर यहां से जाएं

सत्यामृत ...

आओ चलें, वहां - जहां
'सत्यामृत' झर रहा है !

चलते-चलते न रुकें
बढते-बढते, बढते रहें
हम भी पहुंचे वहां
जहां 'सत्यामृत' झर रहा है !

एक बूंद पाकर
हम भी
अजर-अमर हो
'सत्यामृत' बन जाएं !

आओ चलें, वहां - जहां
'सत्यामृत' ... ... !!

Saturday, April 24, 2010

भईये ये कलयुग है .... यहां सब कुछ संभव है !!!

मैं कल जिसके हाथ में फ़ूल दे के आया था,
आज उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है !!!
.....इस शेर को चरितार्थ होते देख रहा हूं ..... हुआ ये कि ललित शर्मा जी द्वारा अपने ब्लाग - "चिट्ठाकार चर्चा" में दिनांक - २५ फ़रवरी २०१० को "डा.रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' " की चर्चा उनके मान-सम्मान को देखते हुये की थी ....ठीक इसके विपरीत "डा.रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' " द्वारा ललित शर्मा जी के ब्लागिंग से अलविदा कहने पर ...... भावभीनी विदाई देते हुये उनके फ़ोटो पर हार-माला पहना कर की थी ......... शायर ने, क्या बुरा लिखा है -
मैं कल जिसके हाथ में फ़ूल दे के आया था,
आज उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है !!!
.... भईये ये कलयुग है .... यहां सब कुछ संभव है ... अगर भला कुछ है तो - "नेकी कर दरिया में डाल" !!!!

Friday, April 23, 2010

सृजन

शब्दों की भीड में
चुनता हूं
कुछ शब्दों को

आगे-पीछे
ऊपर-नीचे
रख-रखकर
तय करता हूं
भावों को

शब्दों की तरह ही
'भाव' भी होते हैं आतुर
लडने-झगडने को
कभी सुनता हूं
कभी नहीं सुनता

क्यॊं ! क्योंकि
करना होता है

सृजन
एक 'रचना' का

शब्द, भाव, मंथन
मंथन से ही
संभव है
सृजन
एक "रचना" का !

Thursday, April 22, 2010

.... ब्लागर एक "अंतर्राष्ट्रिय पत्रकार" है !

ब्लागजगत में जो लेखन कार्य युद्ध-स्तर पर चल रहा है लेख, कविता, कहानी, हास्य-व्यंग्य, कार्टून, चर्चा-परिचर्चा, गुफ़्त-गूं, क्रिया-प्रतिक्रिया, यह सभी समाचार के हिस्से हैं इन सभी के समावेश से "समाचार पत्र व पत्रिकाएं" साकार रूप लेती हैं .... "ब्लागजत" पर लेखन को मात्र शौक-पूर्ति नहीं कहा जा सकता यह एक "अंतर्राष्टिय मंच" है .... "अंतर्राष्टिय पत्रकारिता" है ....

... यह सर्वविदित सत्य है कि आये-दिन ब्लागजगत के लेख इत्यादि "प्रिंट मीडिया" में समावेश हो रहे हैं कभी-कभी तो ब्लागिंग "इलेक्ट्रानिक मीडिया" में सुर्खियों का विषय रहा है .... इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में ब्लागजगत "अंतर्राष्टिय पत्रकारिता" का मजबूत स्तंभ होगा .... इसका खुद का अपना एक "संघठन" होगा और सभी ब्लागर "सदस्य" होंगे, जो "अंतर्राष्ट्रिय पत्रकार" के नाम से जाने जायेंगे ...

..... मेरा मानना तो ये है कि अभी से ब्लागजगत के नामचीन ब्लागर मिलकर इस दिशा में सार्थक पहल करते हुये साकार रूप देने के लिये रूप-रेखा तैयार करें .... क्यॊंकि देरे-सबेर यह कार्य तो होना ही है फ़िर आज से क्यॊं नहीं ... "अंतर्राष्टिय पत्रकारिता" का एक "डिजाईन" तैयार होते ही, बुनियादि कार्य में हर एक "ब्लागर" अपनी सारी "ऊर्जा" लगा देगा .... ब्लागजत में स्थापित मेरे साथियों कदम बढाओ "अंतर्राष्टिय पत्रकारिता" का ढांचा तैयार करो ... इमारत तो बना ही लेंगे .... आज मैं इस मंच से एक ऎसा "कडुवा सच" बयां कर रहा हूं जो सिर्फ़ "कडुवा" ही नहीं वरन "मीठा" भी है .... ब्लागर एक "अंतर्राष्ट्रिय पत्रकार" है !

Wednesday, April 21, 2010

"चर्चाओं की चर्चा"

क्या ब्लागजगत में मच रहे बबाल को शांत करने के लिए "चर्चाओं की चर्चा" की आवश्यता आ गई है .... शायद हां, वो इसलिए की आये दिन ये प्रश्न खडा हो जा रहा है की चिट्ठों की जो चर्चाएं हो रही हैं वे कितनी सार्थक व सारगर्भित हैं ..... क्यों ये चर्चाएँ विवादों को जन्म दे रही हैं ...... क्यों इन चर्चाओं के कारण ब्लागजगत में अशांति का माहौल ...... चर्चाकार आपस में मिलकर "चर्चाओं" के सम्बन्ध में एक मापदंड निर्धारित क्यों नहीं कर लेते ?

.... चर्चाओं की सार्थकता तब ही महत्वपूर्ण व प्रसंशनीय कही जा सकती है जब एक निश्चित मापदंड के अनुकूल चर्चाएँ हों अन्यथा ..... अक्सर देखने में आता है की जिन पोस्टों को चर्चाओं में स्थान मिल जाता है वे उतनी प्रभावशाली नहीं होती हैं कि उन पर किसी अन्य मंच पर भी चर्चा की जाए .... ये भी सच है ब्लागजगत में सभी अपनी-अपनी मर्जी के मालिक हैं, किसी को मना नहीं किया जा सकता और न ही किसी को समझाया जा सकता !!

.... लेकिन इतना जरुर है कि यदि चर्चाएँ किसी एक निर्धारित मापदंड के अनुरूप हों, तो चर्चाएँ ज्यादा प्रभावशाली व प्रसंशनीय हो सकती हैं .... कहने का तात्पर्य ये है कि चर्चाओं में पीठ थपथपाने ... पंदौली देने ... भाई-भतीजा वाद .... अपने-तुपने व गुटवाजी का भाव परिलक्षित न हो तो चर्चाएँ कारगर कही जा सकती हैं .... यदि "चर्चाकार" पोस्टों की चर्चा "गुण-दोष " के आधार पर करें तो उन चर्चाओं की निसंदेह प्रसंशा होगी ... मेरा मानना है की चर्चाकार एक "समीक्षक" होता है उसे पोस्टों की न सिर्फ चर्चा करना चाहिए वरन उन पोस्टों की समालोचना भी करना चाहिए, चर्चा के लिए चुनी गईं पोस्टों में "कितना दूध है कितना पानी" है ये उसे बेजिझक उजागर कर देना चाहिए !!!

Tuesday, April 20, 2010

क्या "अहा ! जिन्दगी" बंद होने के कगार पर है !!!

क्या दैनिक भास्कर समूह की वहुचर्चित पत्रिका "अहा ! जिन्दगी" बंद होने के कगार पर आ गई है ? ... हां, बंद हो भी जाए तो क्या फर्क पड़ता है "डी बी कॉर्प ग्रुप" एक बड़ा ग्रुप जो बन गया है ! .... अब वो दैनिक भास्कर पेपर के साथ - साथ बच्चों की पत्रिकाएं भी बेधड़क बेचने में सफल हो रहे हैं .... इसे सफलता कैसे कह दें ... जो लोग पेपर पढ़ते हैं उन्हें सिर्फ पेपर पढ़ने से मतलब होता है बच्चों की पत्रिका कोने-काने में पडी रह जाती है "सच" कहा जाए तो "पाठकों" को इन छोटी पत्रिकाओं की जरुरत ही नहीं होती ..... "हाकर" पेपर के साथ उसे भी फेंक जाता है .... पत्रिकाएं घर-घर पहुंच तो जाती हैं पर उन्हें कोई खोलकर देखता भी है क्या !

.... शायद नहीं, पढ़ना तो बहुत दूर की बात है .... महीना पूरा होने पर पेपर बिल के साथ उनका भी बिल ले जाता है अब सौ-डेढ़ सौ रुपये का बिल .... कितने लोग देखते हैं , कितने लोगों के पास इतनी फुर्सत है, रुपये निकाल कर दे देते हैं ..... हर महीने रुपये समय पर "डी बी कॉर्प ग्रुप" के खाते में जमा .... हजार-दो -हजार नहीं ... लाखों-करोड़ों रुपये .... वाह क्या जिन्दगी है .... वहीं दूसरी ओर उनकी वहुचर्चित पत्रिका "अहा ! जिन्दगी" का ताजा-ताजा "अप्रेल-२०१०" का अंक देखते ही चुप नहीं रहा जाता .... क्यों, क्या हो गया .... क्या हो गया !!! आप खुद देख लीजिये .... कहां हैं सम्पादक (यसवंत व्यास) और कहां है सम्पादकीय .... इतनी बड़ी पत्रिका सम्पादक और सम्पादकीय के बगैर ....उफ़ .... अब क्या कहें .... लगता है "अहा ! जिन्दगी" बंद होने के कगार पर है !!!

Friday, April 16, 2010

चिट्ठा चर्चा ... "गुटर-गूं" ... फर्जी वाड़ा का बोलबाला !!

दो ब्लागर टेलीफ़ोन पर .... भैय्या प्रणाम ... हां अनुज बोलो ... भैय्या नई पोस्ट लगाया हूं "चर्चा" में ले लेना .... हां बिलकुल हो जायेगा आप निश्चिंत रहें ... हां जरा देखना आजकल कुछ लोग "चर्चा" के पीछे पड गये हैं चर्चा पर सबालिया निशान लगा रहे हैं, पता नहीं क्यों लोग अपने अपने में मस्त नहीं रहते, बेवजह ही हमारी "चर्चा" के पीछे पड रहे हैं ... भैय्या, लोग पीछे इसलिये पडने लगें हैं कि वो अपने आप को एक अच्छा लेखक समझ रहे हैं, पर वे ये भूल जाते हैं कि अच्छा लेखक वो होता है जो "छपने-छपाने" का माद्दा रखता है, जो छपता है वही तो लोग पडते हैं, लोग इस "कडुवे सच" को समझते क्यों नहीं हैं .... ठीक कह रहे हो अनुज, तुम्हारी बातों में दम है फ़िर भी जो लोग उछल रहे हैं उनको तो एक न एक दिन सबक सिखाना ही पडेगा .... भैय्या आप निश्चिंत रहें उनका भी बंठाधार लगाने की योजना बना रहे हैं, ठीक है भैय्या प्रणाम .... खुश रहो अनुज ... !

... तीन-चार दिन बाद पुन: फ़ोन ..... अनुज .... हां भैय्या प्रणाम ..... यार कुछ लिखो तुम्हारा ब्लाग खाली पडा है मुझे "चर्चा" लगानी है .... हां भैय्या वही सोच रहा हूं क्या लिखूं कुछ विषय समझ में नही आ रहा है .... अरे यार एक काम करो आजकल सानिया शादी, आईपीएल, नक्सलवाद पर खूब शोर मचा हुआ है किसी एक पर आठ-दस लाईन लिख कर एक-दो फ़ोटो लगा देना पोस्ट बन जायेगी ..... सही कहा भैय्या ये तो मेरे दिमाग में सूझ ही नहीं रहा था आज ही लगा देता हूं .... देर मत करना आज शाम तक ही लगा देना, रात में मुझे ड्राफ़्टिंग करना है कल सुबह ही "चर्चा" की पोस्ट लगाना है ... हां भैय्या हो जायेगा ... प्रणाम भैय्या ... खुश रहो ... !!

... दूसरे दिन "चर्चा" पर पोस्ट जारी .... पन्द्रह-बीस मिनट में ही "टिप्पणियों" की भरमार .... बढिया ... बहुत सुन्दर .... बहुत खूब ... सार्थक चर्चा ... समसामयिक पोस्टों की सारगर्भित चर्चा ... आभार .... बधाई ... धन्यवाद .... बगैरह बगैरह .... पुन: टेलीफ़ोन .... भैय्या आपने तो कमाल कर दिया क्या लिखते हो, क्या "चर्चा" का अंदाज है, छा गये भैय्या, आशिर्वाद बनाये रखना .... अरे खुश रहो अनुज ..... प्रणाम भैय्या ..... !!!!!

Thursday, April 15, 2010

क्या चिटठा चर्चाएं अंदरुनी विवादों को जन्म दे रही हैं ?

क्या ब्लाग जगत में अशान्ति की जड़ चिट्ठा चर्चाएं हैं? ... क्या चिटठा चर्चाएं अंदरुनी विवादों को जन्म दे रही हैं ? .... इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि ये चर्चाएं किसी--किसी दिन "सिर फ़ुटव्बल" तक की स्थिति पैदा कर सकती हैं .... वो इसलिये, चर्चाओं मे अक्सर ऎसा होता है कि किसी-किसी की पीठ थपथपा दी जाती है और किसी-किसी को नजर अंदाज कर दिया जाता है .... क्या ऎसा संभव है ... हां बिलकुल ... पीठ थपथपा दी यहां तक तो ठीक है अगर किसी को नजर अंदाज कर दिया तो तनाव तो बढना तय है ... तनाव मतलब अंदरुनी विवाद का जन्म ... फ़िर किसी किसी दिन तो तनाव बाहर निकलेगा ही .... जिस दिन बाहर निकलना ... मतलब उठा-पटक... तीन-पांच ... तना-तनी ...आरोप-प्रत्यारोप ..... लट्ठम-लट्ठा .....

.... तो इसका उपाय क्या है कि विवाद हों .... उपाय भी है .... पहले ये तो तय हो कि इन चिट्ठा चर्चाओं मे चिट्ठे शामिल करने का आधार क्या है? ....किन्ही विशिष्ट चिट्ठों की ही चर्चा रोज ... प्रतिदिन ... धडाधड ... क्यों, किसलिये .... क्या इन धडाधड के अलावा और कोई चिट्ठे नहीं हैं जिनकी भी चर्चा की जा सके .... क्या जिनको चर्चा में स्थान मिल रहा है वही लोग सार्थक ब्लागिंग कर रहे हैं ? .... क्या अच्छी व प्रभावशाली पोस्टों की चर्चा नहीं की जा सकती ? .... क्या इन चर्चाओं में पीठ थपथपाने तथा नजर अंदाज करने का भाव परिलक्षित नहीं हो रहा है ? .... क्या अच्छी पोस्टों का हक नहीं है कि उनकी भी चर्चा हो ? .... ऎसा लगता है कि चर्चाओं में सार्थक चर्चा को कम वि्वादों को अधिक महत्व दिया जा रहा है, जिससे ब्लाग जगत के वातावरण में अशांति फ़ैलती जा रही है .... ऎसा भी देखने में रहा है कि ब्लागवाणी से सीधे लिंक उठाकर चिपका कर "चर्चा" की जा रही है ... यह काम तो एग्रीगेटर भी भलिभांति कर रहे हैं फ़िर ऐसी चर्चा का औचित्य क्या है?

.... अगर ये चर्चाएं बंद हो जाएं या फ़िर दमदार पोस्टों की ही चर्चा की जाये ... तो ये पीठ थपथपाने .... नजर अंदाज करने ... गुटवाजी ... अपना-तुपना ... मनमुटाव ... अंदरुनी खुन्नस ... बगैरह बगैरह का स्वमेव अंत हो जायेगा .... साथ ही साथ यह भी समझ में आने लगेगा कि कौन कितने पानी में है ... "अब आया ऊंठ पहाड के नीचे" इस कहावत का भी चरितार्थ रूप देखने समझने का अवसर मिल जायेगा .... अगर ऎसा होता है तो इसमे बुराई ही क्या है .... यह निर्णय "ब्लागजगत ब्लागरों" के लिये हितकर होगा .... ये जरुर है ऎसा होने से कुछेक लोगों की सेहत पर असर पड सकता है जो फ़रमाईसी कार्यक्रम "बिनाका गीतमाला" में "टापो - टाप" चल रहे हैं !!!

Wednesday, April 14, 2010

... कौन कहता है नक्सलवाद एक विचारधारा है !!!

कौन कहता है नक्सलवाद समस्या नहीं एक विचारधारा है, वो कौनसा बुद्धिजीवी वर्ग है या वे कौन से मानव अधिकार समर्थक हैं जो यह कहते हैं कि नक्सलवाद विचारधारा है .... क्या वे इसे प्रमाणित कर सकेंगे ? किसी भी लोकतंत्र में "विचारधारा या आंदोलन" हम उसे कह सकते हैं जो सार्वजनिक रूप से अपना पक्ष रखे .... कि बंदूकें हाथ में लेकर जंगल में छिप-छिप कर मारकाट, विस्फ़ोट कर जन-धन को क्षतिकारित करे

यदि अपने देश में लोकतंत्र होकर निरंकुश शासन अथवा तानाशाही प्रथा का बोलबाला होता तो यह कहा जा सकता था कि हाथ में बंदूकें जायज हैं ..... पर लोकतंत्र में बंदूकें आपराधिक मांसिकता दर्शित करती हैं, अपराध का बोध कराती हैं ... बंदूकें हाथ में लेकर, सार्वजनिक रूप से ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर बता कर फ़ांसी पर लटका कर या कत्लेआम कर, भय दहशत का माहौल पैदा कर भोले-भाले आदिवासी ग्रामीणों को अपना समर्थक बना लेना ... कौन कहता है यह प्रसंशनीय कार्य है ? ... कनपटी पर बंदूक रख कर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, कलेक्टर, एसपी किसी से भी कुछ भी कार्य संपादित कराया जाना संभव है फ़िर ये तो आदिवासी ग्रामीण हैं

अगर कुछ तथाकथित लोग इसे विचारधारा ही मानते हैं तो वे ये बतायें कि वर्तमान में नक्सलवाद के क्या सिद्धांत, रूपरेखा, उद्देश्य हैं जिस पर नक्सलवाद काम कर रहा है .... दो-चार ऎसे कार्य भी परिलक्षित नहीं होते जो जनहित में किये गये हों, पर हिंसक वारदातें उनकी विचारधारा बयां कर रही हैं .... आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्याएं हर युग - हर काल में होती रही हैं और शायद आगे भी होती रहें .... पर समाज सुधार व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के लिये बनाये गये किसी भी ढांचे ने ऎसा नहीं किया होगा जो आज नक्सलवाद के नाम पर हो रहा है .... इस रास्ते पर चल कर वह कहां पहुंचना चाहते हैं .... क्या यह रास्ता एक अंधेरी गुफ़ा से निकल कर दूसरी अंधेरी गुफ़ा में जाकर समाप्त नहीं होता !

नक्सलवादी ढांचे के सदस्यों, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे बुद्धिजीवियों से यह प्रश्न है कि वे बताएं, नक्सलवाद ने क्या-क्या रचनात्मक कार्य किये हैं और क्या-क्या कर रहे हैं ..... शायद वे जवाब में निरुत्तर हो जायें ... क्योंकि यदि कोई रचनात्मक कार्य हो रहे होते तो वे कार्य दिखाई देते.... दिखाई देते तो ये प्रश्न ही नहीं उठता .... पर नक्सलवाद के कारनामें ... कत्लेआम ... लूटपाट ... मारकाट ... बारूदी सुरंगें ... विस्फ़ोट ... आगजनी ... जगजाहिर हैं ... अगर फ़िर भी कोई कहता है कि नक्सलवाद विचारधारा है तो बेहद निंदनीय है।

Tuesday, April 13, 2010

"खुदा महरवान तो गधा पहलवान"

आज मन में कुछ लिखने का विचार नहीं बन रहा था ....क्या लिखूं कुछ समझ में नहीं रहा था .... तभी दिमाग में एक बिजली कौंधी .... "चलो आज "भगवान" का बाजा बजाया जाये !" .... अरे भाई भगवान का ही क्यूं ... धरती पर क्या बाजा बजाने के लिये "गधे" कम पड गये हैं ... गधे कम नहीं पड गये हैं बल्कि उनकी संख्या दिन--दिन बढते जा रही है .... इसलिये ही तो "भगवान" का बाजा बजाने का मन कर रहा है .... देख के भाई जरा संभल के ... अब संभलना क्या है ... आज तो "भगवान" से पंगा लेकर ही रहेंगे ....

.... हुजूर ... माई-बाप ... पालनहार ... अरे इधर-उधर मत देखो "प्रभु ...अंतरयामी" ... मैं आप ही से बात कर रहा हूं बात क्या कर रहा हूं सीधा-सीधा एक सबाल पूंछ रहा हूं .... धरती पर "गधों" की संख्या दिन--दिन क्यों बढाये पडे हो ? .... भगवान जी सोचने लगे ... ये कौन "सिरफ़िरा" गया ... क्या इसे मैंने ही बनाया है !! .... भगवान जी चिंतित मुद्रा में ... चिंतित मतलब "नारद जी" प्रगट .... मैं समझ गया कि आज मेरे प्रश्न का उत्तर मुश्किल ही है ...

.... भगवान जी कुछ बोलते उससे पहले ही नारद जी बोल पडे .... नारायण-नारायण ... प्रभु ये वही "महाशय" हैं जो श्रष्टी की रचना करते समय "मीन-मेक" निकाल रहे थे, जिनके सबालों का हमारे पास कोई जबाव भी नही था जिन्हें समझा-बुझाकर कुछ समय के लिये शांत कर दिये थे आज-कल धरती पर समय काट रहे हैं ..... भगवान जी त्वरत आसन से उठ खडे हुये .... और नारद से पूंछने लगे ...

.... धरती पर गधे नाम के जानवर की संख्या तो कम हो रही है फ़िर ये कैसे हम पर आरोप लगा रहे हैं कि हम गधों की संख्या बढा रहे हैं .... प्रभु ये तो मेरे भी समझ में नहीं रहा ... चलो इन्हीं से पूंछ लेते हैं .... मैंने कहा- मेरा सीधा-सीधा सबाल है धरती पर "गधों" की संख्या दिन--दिन क्यों बढ रही है ? ... फ़िर आश्चर्य के भाव ... मेरा मतलब धरती पर "गधे टाईप" के मनुष्य जो लालची, कपटी, बेईमान, धूर्त, मौकापरस्त, लम्पट हैं उनसे है ...

.... उन पर ही आप की महरवानी क्यों हो रही है ... वे ही क्यों मालामाल हो रहे हैं .... वे ही क्यों मलाई खा रहे हैं ... उनको देख-देख कर दूसरे भी "गधे" बनने के लिये दौड रहे हैं .... किसी दिन धरती पे के देखो .... वो कहावत चरितार्थ हो रही है ...
"खुदा महरवान तो गधा पहलवान" .... मैं तो बस यही जानना चाहता हूं ... आप लोगों की महरवानी से "कब तक गधे पहलवानी करते रहेंगे"..... भगवान जी पुन: चिंतित मुद्रा में ... तभी नारद जी ... नारायण-नारायण ... प्रभु आपके सबाल का जबाव सोच रहे हैं ... मेरी एक समस्या है उसे सुलझाने मे मदद चाहिये .... नारद जी की समस्या ... समस्या क्या उनकी बातें सुनते सुनते फ़िर धरती पे गये .... मैं समझ गया आज जबाव मिलने वाला नहीं है .... लगता है "खुदा" की महरवानी से गधे पहलवानी करते रहेंगे !!!

"कडुवा सच" लिखने पर धमकी मिली ... !

कडुवा सच लिखने पर धमकी मिली .... लिखते समय कभी ऎसा नहीं सोचा कि ऎसा भी हो सकता है पर ये सच है ... अभी-अभी कुछ देर पहले मोबाईल पर घंटी बजी स्क्रीन पर कोई नंबर नहीं .... नंबर नहीं ... आश्चर्य ... मैंने सोचा ये कैसे संभव है .... फ़ोन उठाया सामने से किसी महिला की सुरीली-मीठी आबाज .... सुनिये मिस्टर श्याम कोरी 'उदय' ये फ़ालतू का कडुवा सच लिखना बंद करो ... कुछ भी अनाप-सनाप लिखे जा रहे हो ... तुम्हारे लिखने का कोई हिसाब-किताब नहीं है ... जो मन में आये लिख देते हो .... मैंने कहा - मोहतरमा आप अपना परिचय देंगी .... सुनो परिचय की आवश्यकता नहीं है ... मैंने कहा - बिना परिचय के बात कैसे बनेगी, और जरा फ़रमायेंगी "अनाप-सनाप" लिखने से आपका मतलब क्या है .... मतलब - फ़तलब छोडो .... फ़ोन डिसकनेक्ट .......

.... लगता है अब कुछ मीठा-मीठा लिखना पडेगा .... नहीं तो फ़िर फ़ोन ... धमकी .... अगर मोहतरमा अपना परिचय भी दे देतीं तो अच्छा होता ... खैर छोडो ... होते रहता है ... पर कुछ मीठा लिखने की आदत डालनी पडेगी .... पर क्या करें आदत जो नही है .... चलो देखते हैं ... !!!!

Monday, April 12, 2010

अंगप्रदर्शन .... इतना विरोध क्यों !!!

आये दिन सुनने व देखने को मिलता है कि फ़ला महिला संघठन ने, फ़ला पार्टी ने फ़िल्मों में हो रहे अश्लील व भद्दे प्रदर्शन का जमकर विरोध किया ... घंटों नारेबाजी चली ... फ़िल्म का प्रदर्शन नहीं होने दिया ...पोस्टर फ़ाड दिये गये ... फ़ला शहर, फ़ला राज्य में फ़िल्म रिलीज नहीं होने देंगे ... बगैरह ... बगैरह ... लेकिन क्या फ़र्क पडता है कुछ समय की "चिल्ल-पों" ...फ़िर वही, जो होता आया है, जो हो रहा है ... फ़िल्म रिलीज... हाऊसफ़ुल ... ब्लैक टिकिट की मारा-मारी .... फ़िल्म ने आय के नये कीर्तिमान बनाये ... सुपर-डुपर हिट ... करीना ने क्या काम किया ... क्या सीन है ... मजा आ गया ...

... अब क्या कहें फ़िल्म तो फ़िल्म हैं बनते आ रही हैं बनते रहेंगी ... अंगप्रदर्शन ...चलता है थोडा-बहुत तो हर फ़िल्म में रहता है ये कोई आज की बात नहीं है ३०-४० साल पहले की फ़िल्मों मे भी देखने मिल जाता है ... आज करीना... कैटरीना ...सुश्मिता ...प्रियंका ... ऎसा कुछ अलग नहीं कर रहीं जो मुमताज ...बैजयंती माला ...सायरा बानो ने नहीं किया ... ये बात और है कि पहले सब "स्मूथली" चलता था पर अब पहले विरोध बाद में सब "टांय-टांय" फ़िस्स ...विरोध भी इसलिये कि विरोध करना है ....

... खैर छोडो ये सब तो चलते रहता है ...छोडो, क्यों छोडो ... अरे भाई, जब फ़िल्म बनाने वाले, फ़िल्म में काम करने वाले, फ़िल्म देखने वाले ... सब खुश, तो बेवजह का विरोध क्यों ... चलो ये सब तो ठीक है फ़िल्मों में विभत्स हत्याएं, दिलदहला देने वाले बलात्कार के द्रष्य, अंग-भंग के क्रुरतापूर्ण द्रष्य, अजीबो-गरीब लूट-डकै्ती के कारनामे, बच्चों का क्रुरतापूर्ण शोषण, तरह तरह के आपराधिक फ़ार्मूले दिखाये जाते हैं उनका विरोध क्यों नहीं ...क्या इन सीन/द्रष्यों को देखकर रोंगटे खडे नहीं होते! क्या इस तरह के फ़िल्मांकन को देखकर मन विचलित नहीं होता ... क्या फ़िल्मों में सिर्फ़ अंगप्रदर्शन के द्रष्य ही दिखाई देते हैं ! ...ठीक है विरोध जायज है पर अंगप्रदर्शन का ही इतना विरोध क्यों, किसलिये !!

Sunday, April 11, 2010

जात-पात का "ढोंग-धतूरा"

जात-पात का "ढोंग-धतूरा" आज भी कुछ लोगों की नसों में खून की तरह दौड रहा है .... आज भी कुछ लोग जात-पात की "डफ़ली-मंजीरे" बजाने से बाज नहीं रहे हैं..... लेकिन वही लोग जब शहर जाते हैं तब होटल में चाय-भजिया का आनंद लेते समय नहीं पूंछ्ते - किसने बनाया, कौन परोस रहा है ....... फ़िर चाहे मुर्गा-मछली गटा-गट .... दारू के अड्डे पे तो सब भाई भाई .... जब बाहर स्त्री समागम का अवसर मिले तो कोई जात-धर्म नहीं!!

..... फ़िर क्यों कुछ लोग गांव में अथवामोहल्ले में ही अपनी बडी जात होने का ढिंढोरा पीटने से बाज नहीं आते क्या छोटी जात के लोग गांव में ही बसते हैं या फ़िर गांव पहुंचते हीलोगों की जात बडी हो जाती है .... तभी तो कुछ लोग गांव मेंकिसी-किसी के घर का पानी नहीं पीते .... किसी-किसी के घरउठते-बैठते नहीं .... कुयें पर ऊंची जात - नीची जात के पनघट ..... अजब रश्में-गजब रिवाज !!

..... गांव में उनका अदब हो .... ऊंची जात का होने के नाते मान-सम्मान हो ... क्यों,किसलिये .... क्या ऊंची जात के हैं सिर्फ़ इसलिये ही सम्मान के पात्र हैं ... या फ़िर मान-सम्मान का कोई दायरा होना चाहिये .... क्या मान-सम्मान के लिये सतकर्म, उम्र, व्यवहार का मापदंड नहीं होना चाहिये .... सच तो यही है कि पढे-लिखे समाज में, शहरों में, विकासशील राष्ट्रों में मान-सम्मान का दायरा जातिगत न होकर निसंदेह व्यवहारिक है .... आज हमें भी अपनी सोच व व्यवहार में बदलाव लाना ही पडेगा .... जात-पात के प्रपंचों से दूर होना पडेगा ... नहीं तो हमारे शिक्षित व विकसित होने का क्या औचित्य है !!!

क्या डा. मयंक सठिया गये हैं ?

एक ब्लागर मित्र का फ़ोन आया .... घर-परिवार .... अपनी-तुपनी .... इधर-उधर की बात-चीत हुई ... फ़िर उसने पूछा ललित शर्मा जी ने ब्लागिंग को अलविदा कह दिया ... वो तो एक अच्छे लेखक हैं ... मैंने कहा ... अरे कोई विशेष बात नहीं है भाईचारे व अपनेपन मे कभी-कभी छोटी-मोटी बात हो जाती है .... अनिल भाई और ललित भाई दोनो धुरंधर ब्लागर है, आपस में बहुत मधुरता भी है.... कोई छोटी-मोटी बात आपस मे खटक गई होगी.... देर-सबेर खटास दूर हो जायेगी .... फ़िर दोनों एक साथ "मार्निंग वाल्क" करते नजर आयेंगे ।

..... खैर छोडो और सुना क्या हाल है ..... हाल-चाल तो सब ठीक हैं श्याम भाई .... पर एक बात समझ में नहीं आई ...अब क्या हो गया ... क्या डा मयंक सठिया गये हैं ? ......अरे वही "शब्दों का दंगल" बाले .... क्या हुआ उनको .... एक ओर सारे ब्लागजगत में ललित शर्मा को पुन: ब्लागिंग के लिये आमंत्रित कर रहे हैं तो दूसरी ओर डा. मयंक अकेले ऎसे व्यक्ति हैं जो ललित शर्मा को "ऎलानिया तौर" पर "भावभीनी विदाई" देते हुये उनके निर्णय का "स्वागत" कर रहे हैं .... उनकी पोस्ट से ऎसा लग रहा है कि वे बहुत "प्रसन्न" हैं ... बाकायदा "हार-वार" पहना कर फ़ोटो लगाई है ... ऎसा लग रहा है कि उनकी "प्रसन्नता" का कोई ठिकाना नहीं है या फ़िर डा मयंक सठिया गये हैं ?

.... अरे ऎसी कोई बात नहीं होगी, डा मयंक एक सुलझे हुये आदमी हैं उनका आशय ऎसा कतई नहीं हो सकता .... शायद मैं भी वहां टिप्पणी मार के आया हूं पर रात में कभी-कभी चलते-चलते भी टिप्पणी ठोक देता हूं चलो कोई बात नहीं अभी देखता हूं ..... दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा .... बात-चीत करते करते पोस्ट ओपन .... हां यार तेरी बात में तो दम है ... बाकायदा फ़ूलों का हार ..... साथ में ये भी लिखा है - " ... परन्तु हम इनके निर्णय का स्वागत करते हैं ..." ..... यार ऎसा लगता है उनका आशय बुरा नहीं होगा बस यूं ही पोस्ट लगा दिये होंगे .... श्याम भाई ठीक से देखो कुछ "टिप्पणीकारों" ने भी आपत्ति जाहिर की है .... कम-से-कम आपत्ति के बाद तो पोस्ट हटा देनी चाहिये थी .... या फ़िर खेद व्यक्त करते हुये एक पोस्ट और लगा देनी चाहिये ..... श्याम भाई आप मानो तो ठीक ना मानो तो ठीक ... मुझे तो लगता है डा. मयंक सठिया गये हैं ?

Saturday, April 10, 2010

नक्सली समस्या ....... लैंड माईंस से बचत के उपाय !!!

नक्सलियों के कारगर हथियार "लैंड माईंस"जिसके इस्तमाल से विस्फ़ोट, धमाका, मौतें, गाडियों के परखच्चे ... वगैरह वगैरह ..... "लैंड माईंस" एक ऎसा हथियार जिसके हमले से सामने वाली पूरी-की-पूरी टीम धवस्त और अपनी टीम पूरी तरह सुरक्षित ..... आज तक लगभग सभी नक्सली हमले "लैंड माईंस" के कारण ही सफ़ल हुये और पुलिस असफ़ल ......... नक्सली अक्सर "लैंड माईंस" के लिये कच्ची अथवा टूटी-फ़ूटी पक्की सडक का चयन करते हैं .... साथ ही साथ उस सडक के "जिग-जैक"... "यू" आकार ... या फ़िर उतार-चढाव वाले सडक के हिस्से का चयन खासतौर पर किया जाता है ..... ये कार्य अत्यंत गोपनीय तौर पर कुछ विशेष नक्सलियों की टुकडी द्वारा ही संपादित किया जाता है !

आज हम "लैंड माईंस" से बचने के उपाय पर चर्चा शुरु करते हैं ..... "लैंड माईंस" से बचने का सर्वप्रथम कारगर उपाय तो "पुलिस मूवमेंट" में सावधानी बरतना .... खासतौर पर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में कच्ची अथवा टूटी-फ़ूटी पक्की सडक पर वाहनों से मूवमेंट कतई नहीं करना .... अगर अत्यंत ही आवश्यक है तो मूवमेंट की जानकारी इतनी गोपनीय रहे कि वाहन के ड्राईवर तक को मालूम न हो कि कहां जाना है ..... साथ ही साथ वाहन से निकलते समय सीधे "टारगेट" वाले मार्ग पर मूव न होकर विपरीत दिशा के लिये मूव हों और लगभग आधे-पौन घंटे के पश्चात ही "घुमावदार" रास्ते से घूमते हुये "टारगेट" की दिशा पकडें ..... इस प्रक्रिया में ज्यादा-से-ज्यादा ये होगा कि एक-सबा घंटे का समय तथा पांच-सात लीटर डीजल/पेट्रोल ही बर्बाद होगा .... पर आप सही-सलामत अपने मुकाम पर पहुंच जायेंगे !!

"मिस-अंडरस्टैंडिग"

.... अभी-अभी पता चला कि ललित भाई और अनिल भाई के बीच .... शायद कोई "मिस-अंडरस्टैंडिग" होने के कारण बेवजह ही शीतयुद्ध चल रहा है .... मेरा दोनों से आग्रह इन चंद शेरों के माध्यम से इस प्रकार है :-

हम इंसा थे, या थे मिट्टी के पुतले
बारिश की बूंदों ने हमें मिट्टी बना डाला।

तुमने हमारी दोस्ती का, क्यूं इम्तिहां लिया
तुम इम्तिहां लेते रहे, और दूरियाँ बढती रहीं।


क्यूँ रोज उलझते-सुलझते हो मोहब्बत में
क्या हँसते-मुस्कुराते जीना खुशगवार नहीं ।


दुश्मनी का अब, वक्त नही है
अमन के रास्ते मे, काँटे बहुत हैं ।

Friday, April 9, 2010

नक्सली समस्या ........ लैंड माईंस की रणनीति !!


नक्सली समस्या दिन व दिन गम्भीर रूप लेते जा रही है आये दिन नक्सली वारदात सुनने को मिल रही हैं .... कहीं चार जवान शहीद ...... कहीं पुलिस कैंप पर नक्सली हमला ..... कहीं फ़ारेस्ट डीपो में नक्सलियों ने आग लगाई .... कहीं पुल क्षतिग्रस्त किया ..... कहीं एस. पी. नक्सली विस्फ़ोट में मारे गये ...... तो कहीं ७५ जवान नक्सलियों के शिकार .....आये दिन नक्सली कारनामें प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज बन रहे हैं ...... नक्सली ताण्डव पर आखिर कब विराम लगेगा !

आज हम नक्सलियों के कारगर हथियार "लैंड माईंस" पर चर्चा शुरु करते हैं ...."लैंड माईंस" मतलब विस्फ़ोट, धमाका, मौतें, गाडियों के परखच्चे ... वगैरह वगैरह ..... "लैंड माईंस" एक ऎसा हथियार जिसके हमले से सामने वाली पूरी-की-पूरी टीम धवस्त और अपनी टीम पूरी तरह सुरक्षित ..... आज तक लगभग सभी नक्सली हमले "लैंड माईंस" के कारण ही सफ़ल हुये और पुलिस असफ़ल ..... पुलिस पार्टी कैसे "लैंड माईंस" की शिकार बन जाती है ... आखिर "लैंड माईंस" की रणनीति क्या है !!

"लैंड माईंस" की रणनीति और सफ़लता के राज .... नक्सली अक्सर "लैंड माईंस" के लिये कच्ची अथवा टूटी-फ़ूटी पक्की सडक का चयन करते हैं .... उस सडक के "जिग-जैक"... "यू" आकार ... या फ़िर उतार-चढाव वाले सडक के हिस्से का चयन खासतौर पर किया जाता है ..... इसका भी एक मुख्य कारण ये होता है कि सडक के दोनों ओर लगभग १५०-२०० मीटर का नजारा उन्हे स्पष्ट रूप से दिखाई दे .... नक्सली ऎसे समय "लैंड माईंस" को बिछाते हैं जब उस मार्ग से किसी का भी आना-जाना न हो ..... ये कार्य अत्यंत गोपनीय तौर पर कुछ विशेष नक्सलियों की टुकडी द्वारा ही संपादित कराते हैं जो उसमें दक्ष होते हैं जिन्हें हम "लैंड माईंस एक्सपर्ट" भी कह सकते हैं !!

"लैंड माईंस" की सफ़लता का राज ये है कि वे "लैंड माईंस" बिछाकर अर्थात लगाकर नक्सली अपने अपने काम में लग जाते हैं और एक "सुनहरे मौके" की राह तकने लगते हैं ... सुनहरा मौका मतलब पुलिस की बडी पार्टी ... उनका मकसद "एक-दो" को मारना नहीं वरन "सौ-पचास" को एक ही "ब्लास्ट" मे निपटाना होता है .... उनके मुखबिर अर्थात सूचक जिन्हें हम नक्सली भाषा में "संगम सदस्य" भी कह सकते हैं वे पुलिस थाने अथवा पुलिस कैंप के आस-पास हर समय सक्रिय रहते हैं .... जैसे ही गाडियों में पुलिस पार्टी के आने-जाने की "सुगबुगाहट" मिली .... नक्सली मिशन चालू ... तत्काल "लैंड माईंस" के बिछे तारों को "रिमोट कंट्रोल" से कनेक्ट कर तैनात .... जैसे ही पुलिस गाडी "लैंड माईंस" के ऊपर... रिमोट कंट्रोल का बटन दबा .... जोर का धमाका ... गाडी के परखच्चे उडे ... सैकडों जवान शहीद ...... ब्रेकिंग न्यूज शुरु .... शोक की लहर ... चारों ओर खौफ़, दहशत, सन्नाटा !!

.......अलविदा ब्लागिंग !!!

... हमारे भाई ललित शर्मा जी ने अचानक ब्लागिंग को अलविदा कह दिया .... क्यों, किसलिये ..... कुछ तो बात होगी ही, पर मामुली नहीं होगी .... वो इसलिये हंसमुख , सहयोगी, मिलनसार, जिंदादिल व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति छोटी-मोटी बातों पर ऎसा कठोर कदम उठाने वाला तो नहीं है ..... कुछ न कुछ ऎसा जरुर हुआ है किसी "दिल में बसने वाले व्यक्ति ने ही दिल को दहलाया" है .... पर ये यकीं है ये नाराजगी जल्द ही दूर हो जायेगी वो इसलिये "प्यार" में तो टकराव हो ही जाता है पर प्यार खत्म नहीं होता .....

.... दोस्ती-प्यार .... दोनों ही बडी खतरनाक चीजें हैं इन्हे मैं "चीजें" इसलिये कह रहा हूं दोनो मे ही "टूटने" का भाव रहता है छोटे-मोटे धक्के मे ही टूटकर बिखर जातीं हैं ...... पर मैं यहां इन्हे "हीरा" भी मानता हूं वो इसलिये .... हीरा जब टूटता है तो अनेकों हीरे का रूप ले लेता है .... बिलकुल ठीक इसी तरह ही दोस्ती-प्यार भी कहीं और ज्यादा मजबूत हो जाती है वो इसलिये कि उसने विरह, अलगाव, टकराव को महसूस जो किया होता है ....

.... खैर दोस्ती-प्यार पर चर्चा-परिचर्चा तो बाद मे कर लेंगे .... मुद्दे की बात तो ये है कि ब्लागिंग को अलविदा कहना सर्वथा अनुचित है .... ब्लागिंग पर सिर्फ़ ब्लागर का अधिकार नहीं है हम पाठकों का भी है ..... इसलिये ललित शर्मा जी से आग्रह है कि वे अपनी नाराजगी को छोडें और एक "शानदार-जानदार-जोशीली-भडकीली" पोस्ट लगायें .....

....... साथ ही साथ इस नाराजगी से जुडे "हर पहलु हर व्यक्तित्व" से भी आग्रह है कि सभी लोग अपनी-अपनी नाराजगी छोडें ..... भाईचारे व सौहार्द्र का माहौल पुन: निर्मित करें ...... जय ब्लागिंग ..... जय जय ब्लागर ..... जय जय छत्तीसगढ .... !!!!

"जिस्म की नुमाईस"

..... पिछली पोस्ट को लिखा, एक बार पढ कर देखा और पोस्ट कर दिया ...... दोपहर में एक मित्र का फ़ौन आया ... वो हंसने लगा ... मैंने पूछा क्या हुआ ... वह हंसते-हंसते बोला ... श्याम भाई क्या कमाल कर रहे हो .... इतना विस्फ़ोटक क्यों लिख रहे हो ....... जरा "ठंडे दिमाग" से लिखा करो .... पोस्ट में "जिस्म की नुमाईस" कुछ ज्यादा हो गई है ..... पोस्ट "आग उगल" रही है ..... जाओ उसमें करेक्शन करो ..... बातें सुनकर मैं सोच में पड गया ..... फ़िर पोस्ट को पुन: "ठंडे दिमाग" से पढा .... लगा करेक्शन जायज है !!!!

.... पिछली पोस्ट में करेक्शन कर दिया गया है ... लेकिन उतना ही जितना .... जायज था !!!!!

Thursday, April 8, 2010

.... पुरुष देख के खुश, तो महिला दिखा के खुश !!!

क्या औरत वही दिखा रही है जो पुरुष देखना चाहता है ... या फिर वह जानती है कि कैसे पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित किया जाये .....क्यों ऎसे छोटे-छोटे ब्लाउज पहनना जिसमें से अधखुले-झलकते स्तनों की नुमाईस हो .... क्यों पूर्णरुपेण खुली हुई पीठ झलकॆ ... क्यों ऎसी मिनी स्कर्ट पहनना जिससे टांगें झलकें ... क्यों इतने भीने-भीने कपडे पहनना जो लगभग पारदर्सी हों .... कहीं ऎसा तो नहीं ... पुरुष देख के खुश, तो महिला दिखा के खुश !!!

... इस भागम-भाग दौर में भला एक औरत दूसरी औरत से पीछे क्यों रहे .... उसे पीछे रहने की जरुरत भी क्या है ... अगर पीछे रह जायेगी तो "बहन जी" ..... बैकवर्ड ... या देहाती .... जैसे कांटों की तरह चुभने वाले "कमेंट" सुन सुन कर पानी पानी हो जायेगी ..... आज की कुछेक औरतें तो इतनी समझदार, चालाक व बुद्धिमान हो गई हैं कि वह जानती हैं .... पुरुषों को कैसे आकर्षित किया जाए ..... या फ़िर कैसे खुद को आकर्षण का केन्द्र बनाया जाये .... लेकिन जिस्म की इस तरह खुल्लम-खुल्ला नुमाईस .... कहीं ऎसा तो नहीं ... पुरुष देख के खुश, तो महिला दिखा के खुश ...

... औरत के पहने टाईट जींस-टी शर्ट से झलकते जिस्म, मिनी स्कर्ट में छलकती जांघें, अधखुले स्तनों, खुली पीठ व मादक अदाओं को देख कर ... पुरुष सडक पर, बाजार में, समारोहों में, कार्यालयों में तथा आस-पडोस में आहें भरने से भला क्यों न बाज आये .... और तो और कुछ लोगों का तो दिन का चैन व रातों की नींद तक गायब हो जाती है ..... ये बिलकुल आम बात होते जा रही है कि वर्तमान समय में कुछेक महिलायें जान-बूझ कर ही ऎसे कपडे पहनने लगीं हैं कि उनके जिस्म की नुमाईस स्वमेव हो ... आखिर क्यों, किसलिये, ... ऎसे उटपटांग ... भडकीले ... कामोत्तेजक कपडे पहनने की जरुरत ही क्या है ... कहीं ऎसा तो नहीं ... पुरुष देख के खुश, तो महिला दिखा के खुश !!

भारत महान ...

हमारी जनता, हमारी सरकार
हमारा
देश, भारत महान
भ्रष्ट जनता, भ्रष्ट सरकार
भ्रष्ट देश , फिर भी भारत महान !

अब हाल देख लो, देश का हमारे
एक भ्रष्ट दूसरे भ्रष्ट को निहारता है
एक भ्रष्ट दूसरे भ्रष्ट को सराहता है
एक भ्रष्ट दूसरे भ्रष्ट को पुकारता है -
बंद करो भ्रष्टाचार
बंद करो दुराचार
बंद करो अत्याचार !

कौन सुने, किसकी सुने, क्यों सुने
कौन उठाये कदम, कौन बढाये कदम
सब तो जंजीरों से बंधे हैं
सलाखों से घिरे हैं
निकलना तो चाहते हैं सभी
तोड़ना तो चाहते हैं सभी
भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, दुराचारी, भोगविलासी
सलाखों को - जंजीरों को !

पर क्या करें
निहार रहे हैं एक-दूसरे को
कौन रोके झूठी महत्वाकांक्षाओं को
कौन रोके झूठी आकांक्षाओं को
कौन रोके भोगाविलासिता को
कौन रोके "स्वीस बैंक" की और बढ़ते कदमों को !

कौन रोके खुद को
सब एक-दूसरे को निहारते खड़े हैं
हमारी जनता, हमारी सरकार, हमारा देश !

हर कोई सोचता है
तोड़ दूं - मरोड़ दूं
जंजीरों को - सलाखों को
रच दूं, गढ़ दूं, पुन: एक देश
जिसे सब कहें हमारा देश, भारत महान !!

Wednesday, April 7, 2010

नक्सली समस्या .... शहीदों को नमन !

छत्तीसगढ़ राज्य में घटित नक्सली वारदात में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि ...... नमन ...... एक पुरानी रचना ...

नक्सली, कौन हैं नक्सली
नक्सली समस्या आखिर क्या है
और कौन हैं इसके जन्मदाता
और कौन चाहते हैं इसकी रोकथाम
रोकथाम के लिए कौन काम कर रहा है
नक्सली उन्मूलन के लिए कौन दम भर रहा है
क्या मात्र दम भरने से, उन्मूलन हो जायगा
या बरसों से दम भर रहे लोगो के साथ
कुछोकों का नाम, और जुड़ जायगा
नक्सली उन्मूलन के लिए उठाए गए कदम
क्या कारगर नहीं थे !
कारगर थे, तो फिर उन्मूलन क्यों न हुआ
क्यों कदम उठ -उठ कर, लड़खडा गए !

दम भरने वाले कमजोर थे
या उठाए गये कदम
या फिर हौसला ही कमजोर था
समय-समय पर नए-नए उपाय
और फिर वही ठंडा बस्ता
आखिर उपायों के, कब तक ठंडे बसते बनते रहेंगे
कब तक माथे पर, चिंता की लकीरें पड़ती रहेंगी
कब तक नक्सलियों के हौसले बढ़ते रहेंगे
कब तक, भोले भाले लालसलाम कहते रहेंगे
लालसलाम -लालसलाम के नारे, कब तक गूंजते रहेंगे !


एयर कंडीशन कमरों -गाड़ियों में बैठने वाले
एयरकंडीशन उड़न खटोलो में उड़ने वाले
क्या नक्सली समस्या का समाधान खोज पाएंगे
क्या लाल सलाम को "बाय-बाय" कह पाएंगे !
एयरकंडीशन में रचते बसते लोग
तपती धरती की समस्या को समझ पाएंगे
सीधी- सादी सड़कों पर दौड़ते लोग
उबड-खाबड़ पग-डंडियों पर, चलने के रास्ते बना पाएंगे
सरसराहट से सहम जाने वाले लोग
क्या नक्सली खौफ को मिटा पाएंगे
या फिर नक्सली उन्मूलन का दम ... ... !

क्या हम नक्सली समस्या समझ गए है
क्या हम इसके समाधानों तक पहुँच गए है
क्या हम सही उपाय कर पा रहे है
शायद नहीं ... ... ... ... आख़िर क्यों !
क्योकि तपती धरती , ऊबड - खाबड़ पग डंडियों
में रचने-बसने वालों के सुझाव कहाँ हैं
कौन सुन -समझ रहा है उनकी
कौन आगे है -कौन पीछे है
एयर कंडीशन ... ... ... तपती धरती ...
... ... ... और नक्सली समस्या !

साथ ही साथ यह प्रश्न भी उठता है
कि नक्सली चाहते क्या हैं
क्या वे लक्ष्य के अनुरूप काम कर रहे हैं
या फिर सिर्फ ... मार- काट ... ...
... ... लूटपाट ... ... बारुदी सुरंगें ...
... ... ही नक्सलियों का मकसद है !!

........वीर जवानों को नमन ..... श्रद्धाजंलि .... शहीदों को नमन !

Tuesday, April 6, 2010

महात्मा गांधी जन्म नहीं लेंगे ?

भभक रहे भ्रष्टाचारी शोलों को
ठंडा करने
क्या अब इस धरती पर
"मंगल पाण्डे" जन्म नहीं लेंगे ?

बेलगाम प्रशासन पर
बम फ़ेंकने
क्या अब इस धरती पर
"भगत सिंह" जन्म नहीं लेंगे ?

दुष्ट-पापियों से लडने को
एक नई सेना बनाने
क्या अब इस धरती पर
"सुभाष चन्द्र" जन्म नहीं लेंगे ?

एक नई आजादी के खातिर
सत्याग्रह का अलख जगाने
क्या अब इस धरती पर
"महात्मा गांधी" जन्म नहीं लेंगे ?

Monday, April 5, 2010

समर ...

एक दिन अपने आप को
'समर' में अकेला पाया
बेरोजगारी-गरीबी-रिश्वतखोरी
भुखमरी-भ्रष्टाचारी-कालाबाजारी
समस्याओं से गिरा पाया

मेरे मन में
भागने का ख्याल आया
भागने की सोचकर
चारों ओर नजर को दौडाया
पर कहीं, रास्ता न नजर आया
किंतु इनकी भूखी-प्यासी
तडफ़ती-बिलखती आंखों को
मैं जरूर भाया

फ़िर मन में भागने का ख्याल
दोबारा नहीं आया
सिर्फ़ इनसे लडने-जूझने
इन्हें हराकर
'विजेता' बनने का हौसला आया

समर में, इनके हाथ मजबूत
आंखें भूखी, इरादे बुलंद
और तरह-तरह के हथियारों से
इन्हें युक्त पाया
और सिर्फ़ एक 'कलम' लिये
इनसे लडता-जूझता पाया

मेरी 'कलम'
और
इन समस्याओं के बीच
समर आज भी जारी है
इन्हें हराकर
'विजेता' बनने का प्रयास जारी है ।

Sunday, April 4, 2010

दो मित्र

दो मित्र सत्यानंद और धनीराम एक साथ पढते-पढते, खेलते-कूदते, मौज-मस्ती करते हुये बचपने से जवानी की दहलीज पार करते हुये जीवन के रंगमंच पर प्रवेश किये ..... दोनों के स्वभाव में तनिक ही अंतर था सत्यानंद होशियार बुद्धिमान था और धनीराम चालाक बुद्धिमान .... दोनों ही जीवन यापन के लिये कामधंधे में लग गये .... होशियार का मकसद "नाम प्रसिद्धि" कमाना था और चालाक का मकसद "धन-दौलत" कमाना था इसलिये वे दोनों अलग अलग राह पर निकल गये .....

..... चलते चलते समय करवट लेते रहा चार-पांच साल का वक्त गुजर गया, बदलाव के साथ ही दोनों की उपलब्धियां नजर आने लगीं चालाक मित्र "कार मोबाईल" के मजे ले रहा था और होशियार मित्र छोटे-मोटे समारोहों में "मान-सम्मान" से ही संतुष्ट था ..... हुआ ये था कि चालाक मित्र अपनी चालाकी से एक-दूसरे को "टोपीबाजी" करते हुये "कमीशन ऎजेंट" का काम कर रहा था और दूसरा बच्चों को टयूशन पढाते हुये "लेखन कार्य" में तल्लीन था ...

.... समय करवट बदलते रहा, पांच-सात साल का वक्त और गुजर गया ... गुजरते वक्त ने इस बार दोनों मित्रों को गांव से अलग कर दिया, हुआ ये कि धनीराम गांव छोडकर देश की राजधानी मे बस गया और सत्यानंद वहीं गांव मे रहते हुये बच्चों को पढाते पढाते दो-चार बार राजधानी जरूर घूम आया .... समय करवट बदलते रहा, और पंद्रह-सत्रह साल का वक्त गुजर गया ....

.... इस बार के बदलाव ऎसे थे कि दोनों मित्र आपस में एक बार भी नहीं मिल सके थे दोनों अपने-आप में ही मशगूल रहे, पर इस बदलाव में कुछ बदला था तो "वक्त ने करवट" ली थी हुआ ये था कि चालाक मित्र "करोडपति व्यापारी" बन गया था और होशियार मित्र "लेखक" बन गया था, व्यापारी "हवाईजहाज" से विदेश घूम रहा था और लेखक राष्ट्रपति से लेखन उपलब्धियों पर "पुरुस्कार" ले रहा था ....

.... वक्त गुजरता रहा, जीवन के अंतिम पडाव का दौर चल पडा था दोनों ही मित्रों ने अपना अपना मकसद पा लिया था लेकिन बरसों से दोनो एक-दूसरे से दूर अंजान थे ..... एक दिन चालाक मित्र अपने कारोबार के सिलसिले में अंग्रेजों के देश गया वहां साल के सबसे बडे जलसे की तैयारी चल रही थी उत्सुकतावश उसने जानना चाहा तो पता चला कि इस "जलसे" मे दुनिया की जानी-मानी हस्तियों को सम्मानित किया जाता है .... बताने बाले ने कहा कि इस बार तुम्हारे देश के "लेखक - सत्यानंद" को सर्वश्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है यह तुम्हारे लिये गर्व की बात होनी चाहिये ....

.... उसकी बातें सुनते सुनते "सेठ - धनीराम" की आंखें स्वमेव फ़ट पडीं ... वह भौंचक रह गया .... मन में सोचने लगा ये कौन सत्यानंद है जिसे सम्मान मिल .... समारोह में अपने बचपन के मित्र सत्यानंद को "सर्वश्रेष्ठ सम्मान" से सम्मानित होते उसने अपनी आंखों से देखा और खुशी से उसकी आंखें अपने आप छलक पडीं .... वहां तो धनीराम को अपने मित्र सत्यानंद से मिलने का "मौका" नहीं मिल पाया ..... दो-चार दिन में व्यवसायिक काम निपटा कर अपने देश वापस आते ही धनीराम सीधा अपने गांव पहुंचा ....

....... बचपन के मित्र सत्यानंद से मिलने की खुशी ..... सत्यानंद ने धनीराम को देखते ही उठकर गले से लगा लिया .... दोनों की "खुशी" का ठिकाना रहा ..... धनीराम बोल पडा - मैने इतनी "धन-दौलत" कमाई जिसकी कल्पना नहीं की थी पर तेरी "प्रसिद्धि" के सामने सब "फ़ीकी" पड गई ..... आज सचमुच मुझे यह कहने में "गर्व" हो रहा है कि मैं "सत्यानंद" का मित्र हूं

क्या सानिया भावुक है ... !!!

क्या सानिया भावुक है ... शायद नहीं , फिर क्यों शोएब से शादी को आतुर है ..... जबकि उसे मालुम है कि क्या विवाद चल रहा है ..... क्या उसे हिन्दुस्तान में कोई शादी के लिए उपयुक्त दुल्हा नहीं मिल रहा है ... यदि ऐसा है तो उसे अविवाहित ही रहना चाहिए .... क्या ये प्रश्न उचित नहीं है .... शायद नहीं , क्योंकि हर एक अपनी मर्जी का मालिक है ... मालिक है तो बस मालिक है .... करेगा वही जो उसकी मर्जी बोलेगी .....

........मर्जी तो बस मर्जी है .... विवाद से उसे क्या लेना-देना ...... देखेंगे , देख लेंगे ... क्या फर्क पड़ता है ... फिजूल के विवाद तो होते ही रहते हैं ... ये हिन्दुस्तान है यहां तो विवाद आम बात है ...... ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ..... लोग चिल्लायेंगे ... फिर शांत हो जायेंगे ... ये तो होते ही रहता है ... ये कोई बड़ी बात नहीं है ..... ये हिन्दुस्तान है .... हम अपनी मर्जी के मालिक हैं ........ वैसे सानिया का अपना अभिमत है उसे क्या करना है , क्या करना चाहिए ... उसे कानूनी अधिकार है ... अंतिम फैसला उसका है ..... उस पर कोई दवाव नहीं डाल सकता .... अंतिम निर्णय सानिया पर छोड़ देते हैं ... आखिर सानिया भी तो विवेकशील है !!!

Saturday, April 3, 2010

कलयुग का आदमी !

अब सोचता हूं -
क्यों न "कलयुग का आदमी" बन जाऊं !
कलयुग में जी रहा हूं
तो लोगों से अलग क्यों कहलाऊं !!

बदलना है थोडा-सा खुद को
बस मुंह में "राम", बगल में छुरी रखना है !

ढोंग-धतूरे की चादर ओढ के
चेहरे पे मुस्कान लाना है !
झूठी-मूठी, मीठी-मीठी
बातों का झरना बहाना है
"कलयुग का आदमी" बन जाना है !!

फ़िर सोचता हूं -
कलयुग का ही आदमी क्यों ?

अगर न बना, तो लोगों को
"पान" समझ कर "चूना" कैसे लगा पाऊंगा !
एक औरत को पास रख कर
दूसरी को कैसे अपना बना पाऊंगा !!

क्या कलयुग में रह कर भी
खुद को बेवक्कूफ़ कहलवाना है !

अगर न बने कलयुगी आदमी
कैसे बन पायेंगे "नवाबी ठाठ" !

कहां से आयेंगे हाथी-घोडे
कैसे हो पायेगी एक के बाद दूसरी ...
दूसरी के बाद तीसरी ..... शादी हमारी !!

कैसे ठोकेंगे सलाम, मंत्री और संतरी
कैसे आयेगी छप्पन में सोलह बरस की !

कैसे करेंगे लोग जय जय कार हमारी
यही सोचकर तो "कलयुग का आदमी" बनना है !

लोगों से अलग नहीं
खुद को, अपने से अलग करना है !

मौकापरस्ती का लिबास पहनकर
झूठ-मूठ के फ़टाके फ़ोडना है !

बस थोडा-सा बदलना है खुद को
एक को सीने से लगाकर -
सामने खडी दूसरी को देखकर मुस्कुराना है !
"कलयुग का आदमी" बन जाना है !!

मंथन से ही सृजन संभव है !

"जिंदगी में नियमित उजाले इंसान को लापरवाह बनाते हैं ..... होता ये है कि जब सब कुछ ठीक चलते रहता है तब इंसान कुछ अलग करने के विषय में नहीं सोचता वरन वह वर्तमान व्यवस्थाओं से ही संतुष्ट हो जाता है, जबकि उतार-चढाव इंसान को उनसे लडने,जूझने और नया सृजन करने हेतु नये विचार मन में जागृत करते हैं, जब विचार जागृत होंगे तब ही इंसान कुछ नया करने के लिये मंथन करेगा ..... मंथन से ही सृजन संभव है .... सच कहा जाये तो प्रत्येक अविष्कार की आधारशिला मंथन ही है, मंथन से कुछ करने के लिये सिर्फ़ दिशा का निर्धारण नहीं होता वरन रूपरेखा व लक्ष्य का निर्धारण कर लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग भी प्रशस्त होता है।"

Friday, April 2, 2010

एयरटेल ......... नाम बडे और दर्शन छोटे !!!

"एयरटेल" एक नामी-गिरामी टेलीफ़ोन कंपनी है जिसका मार्केट कैप भी अन्य प्रतियोगी कंपनियों से बडा है अभी-अभी इसने कुवैत की कंपनी "ज़ईन" के अफ्रीकी कारोबार को हासिल करने के लिए करार किया है और इस करार के साथ ही यह "और बडी कंपनी" बन गई है ...... पर इसके बडे होने का फ़ायदा क्या है !! ..... बिलकुल सच है इसके बडे होने का फ़ायदा तो तब है जब इसकी सुविधाएं भारत के आम ग्राहकों को लाभ पहुचाएं !!

.... लाभ पहुंचाना तो दूर की बात है ये करार होने के बाद से इतने "मदमस्त" हो गये कि इन्हें आम ग्राहकों की दिक्कतों से भी कोई लेना-देना नहीं रहा ..... हुआ ये कि मेरा इंटरनेट कनेक्शन भी इसी "नामी कंपनी" का है, "३१ मार्च" को फ़ोन और इंटरनेट दोनों "सुप्त अवस्था" में चले गये ....... शिकायत पे शिकायत करने पर .... बस बन रहा है सर ... शाम तक बन जायेगा ... केबल खराब हो गया है ..... केबल चोरी हो गया है .... बगैरह बगैरह !!

..... अभी सुबह उठकर चालू किया तब कहीं जाकर संतोष हुआ कि हां ... एयरटेल "कोमा" से बाहर आ गया है ... तीन-चार दिनों तक "फ़ोन और इंटरनेट" का कोमा में रहना इस कहावत को चरितार्थ कर रहा है कि "एयरटेल" के भी "नाम बडे और दर्शन छोटे" हैं!!!