Thursday, November 3, 2011

एक बिना सिर-पैर की कविता ...

आज फिर से -
मेरा मन हो रहा है
कि -
लिखूं, एक और बे-सिर-पैर की कविता !

जिसमें -
क्रिकेटर चौके-छक्के लगा रहा है !
जिसमें -
फुटबालर गोल पे गोल ठोक रहा है !
जिसमें -
बच्चे बीच सड़क पे गिल्ली-डंडा खेल रहे हैं !
जिसमें -
गाँव के कुछ निकम्मे चबूतरे पे बैठ ताश खेल रहे हैं !
जिसमें -
लड़कियाँ आँगन में रंगोली बना रही हैं !
जिसमें
औरतें सिर पे मटका रख कुएं से पानी ला रही हैं !
जिसमें -
किसान खेत में हल जोत रहा है !
जिसमें -
मजदूर सवारी बिठा के रिक्शा खींच रहा है !
जिसमें -
अफसर रिश्वत में मिले नोट गिन रहा है !
जिसमें -
नेता देश को लूटने की योजना बना रहा है !
जिसमें -
प्रेमी अपनी रूठी प्रेमिका की राह तक रहा है !
जिसमें -
पति पत्नि एक-दूसरे को बांहों में समेट रहे हैं !

पर क्या मिलेगा मुझे
ऐंसी सड़ी-गली, या यूँ कहूं -
आर्टिस्टिक कविताएँ लिखने से
शायद ! कुछ भी नहीं
सिर्फ -
झूठी-मूठी वाह-वाही, और कुछ तालियाँ !

क्या फर्क पड़ता है
कि -
कुछ मिले, या न मिले
कविता है, क्या कविता का भी कोई सिर-पैर होता है
नहीं होता !
इसलिए ही, मन हुआ, तो लिख दी -
अपुन ने भी, एक बिना सिर-पैर की कविता !!
बोलो, कैसी लगी, आ गया न मजा, हाँ या ना !!

3 comments:

संगीता पुरी said...

कविता है, क्या कविता का भी कोई सिर-पैर होता है
सिर पैर ही हो जाएं तो कविता कैसी ??

shyam gupta said...

--हां कविता का होता है सिर-पैर ...यह कविता है ..

---इस कविता का सिर है ..कवि का मन होना..शरीर तो है ही विभिन्न विषयों के द्रष्य-चित्र ...और पैर तो अब होगा ही...

वाह! शानदार कविता .....बधाई ...

M VERMA said...

लिख तो दी .. पर इसके तो सिर पैर हैं