अंधेरे ...
हुकूमत की तमाम बस्तियों में,
हैं आलम
घोर अंधेरों के
मगर ... फिर भी
हुक्मरानों के
सूने ...
आँगनों में
दूधिया रौशनी... बिखरी पड़ी है ?
...
...
फांसी ...
चढ़ा दो उन्हें... फांसी पे...
किसे ?
बलात्कारियों को ...
क्यों ? ...
क्योंकि - बतौर सजा ...
बगैर फाँसी सुने
किसी का ...
मन हल्का नहीं होगा ???
...
वक्त ...
एक-एक दिन, जिन्दगी के
बंदरों की तरह
उछल-कूद में कट गए
कमबख्त ...
वक्त भी 'उदय'
बहुत बड़ा मदारी निकला ?
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कुछेक उठा पटक ...
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कुछ और न सही, मुलाजिम ही समझ ले
इस नाते,... बख्शीश पे तो हक़ है अपना ?
...
खिलने को तो, काँटों संग फूल खिल रहे हैं
पर, तेरी बस्ती में हमें कहीं चैन न मिला ?
...
युवराज ...
काम न धाम, बेवजह का नाम ?
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उसूलों की बातें, करो,........ तुम खूब करो
पर, जब ईमान बेचा था तब कहाँ थे मियाँ ?
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