कविता : सिगरेट !
धुंआ, उड़ता रहा
और हम पीते रहे
मारते रहे, कश पे कश
एक के बाद एक, कश !
ट्रैन ... आई नहीं थी
रात के ढाई बजे
हम खड़े थे
इंतज़ार ... करते भी क्या
पीते रहे, कश पे कश, मारते रहे !
तभी, अचानक ही
एक बुजुर्ग ...
सन्नाटा सा छा गया
हम, दोनों के बीच ...
हाँथ की उँगलियों से
सरकते हुए, गिर गई
जमीं पर, खुद ब खुद ... सिगरेट !!
2 comments:
बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति| धन्यवाद|
सटीक प्रक्षेप।
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