Thursday, July 15, 2010

गधा होना गर्व की बात हो गई है !

शहर में दो मित्र घूम रहे थे एक पत्रकार दूसरा लेखक ... घूमते घूमते अचानक शहर में सड़क पर एक गधा दिख गया, गधे को देखते ही पत्रकार मित्र भौंचक भाव से बोला, भैया आजकल गधे दिखना बंद हो गए हैं, अपना सौभाग्य है की आज गधा दिख गया ... सच कह रहे हो गधे को असल रूप में देखना निश्चित ही सौभाग्य की बात है क्योंकि आजकल गधे असल रूप में दिखकर बहरूपिये रूप में ही दिखते हैं !

क्यों मजाक कर रहे हो भैया ! ... मजाक नहीं कर रहा हूं दोस्त ... आजकल गधों की संख्या बहुतायत हो गई है किन्तु वे भेष बदल बदल कर घूमते हैं इसलिये पहचान में नहीं रहे हैं ... वो कैसे भैया ? ... गधे बोझा ढ़ोने का काम करते थे आज भी कर रहे हैं लेकिन बहरूपिये बनकर ... कुछ समझ नहीं पा रहा हूं की आप क्या कह रहे हैं !

अरे यार,अपने सिस्टम में चारों तरफ नजर दौडाओ ... गधे ही गधे दिख जायेंगे ... जो किसी किसी का बोझ ढो रहे हैं ... हुआ दरअसल ये है की सिस्टम के माई-बाप भी गधे ... पसंद हो गए हैं, इसलिये ही उन्होनें सारे घोडों को अस्तबल में बांध दिया है और गधों से काम चला रहे हैं, ... ठीक ही है, इसी बहाने वे दुलत्ती पटकनी खाने से बचे हुए हैं ... जिसका जितना मन करता है उतना बोझा लाद देता है और गधा उनके इशारे पे इधर-उधर चलते रहता है !

बस भैया बस, समझ गया, और आगे कुछ मत बोलो नहीं तो मुझे भी लगने लगेगा की मैं भी गधा हूं ! ... नहीं अभी तू पूरी तरह बहरूपिया नहीं बन पाया है मेरे साथ घूमना-फिरना बंद कर, जा किसी को अपना आदर्श मान ले, तू भी तर जायेगा ... चल एक काम कर अभी तो तू दूर से ही असल गधे को नमस्कार कर ले शायद कुछ आशीर्वाद मिल जाए और तू किसी बहरूपिये का बोझ ढ़ोने से बच जाए ... वैसे भी अपने सिस्टम में गधा होना ... मतलब बहरूपिया होना गर्व की बात हो गई है, पर खुशनसीबी भी है जो नोटों से भरे बोरे ढो रहे हैं !!

17 comments:

दिगम्बर नासवा said...

सत्य कहा है ... आज गधा सब का बाप भी बन रहा है ...

अनामिका की सदायें ...... said...

सटीक रचना.
आप की रचना 16 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका

रश्मि प्रभा... said...

gadhaa yaani vyavaharik

सूर्यकान्त गुप्ता said...

एष: क: एष: गर्दभ: अस्ति! यह क्या है यह गधा है। कक्षा आठवीं तक संस्कृत पढ़े तो तनिक सुरता आ गया। बढिया लेख है। आख़री लाइन मे सार तत्व कह गये लग रहा है "पर खुशनसीबी भी है जो नोटों से भरे बोरे ढो रहे हैं" !!!

1st choice said...

uncle aapkaa jawaab nahi hai, isliye hi apun aapkaa fan hoon .

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राज भाटिय़ा said...

मजेदार :)

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

धांसु मारे हो श्याम भाई
बाज फ़ाड़ के

:)

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

उम्दा पोस्ट

आपकी पोस्ट ब्लॉग4वार्ता में

भूली बिसरी बात पुरानी,
याद आई है एक कहानी

Archana Chaoji said...

बेहतरीन ............कडुआ सच...............

Anonymous said...

बहुत बढिया!

उम्मतें said...

व्यवस्था चाहे जैसी भी हो अपनी शुभकामनाएं केवल अस्तबल में बांध दिए गये घोड़े के साथ ही रहेंगी !

The Straight path said...

अच्छी पोस्ट

अपनीवाणी said...

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