Thursday, September 1, 2011

भीड़ बनाम मुद्दों की राजनीति !

हमारे देश में दिन व दिन बढ़ रही आबादी हमें कहाँ लेकर जायेगी अभी यह स्पष्ट नहीं है किन्तु यह तो जान ही पड़ता है कि यह बढ़ती आबादी राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं को निसंदेह प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्षतौर पर सपोर्ट कर रही है, मेरे कहने का तात्पर्य बहुत ही सीधा व सरल है कि यह बढ़ती आबादी मुद्दा विहीन राजनैतिक महात्वाकांक्षी व्यक्तित्व को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी राजनीति को हरा-भरा रखने में बेहद सहायक है अर्थात जिन राजनैतिक व्यक्तित्वों व दलों के पास सार्थक व प्रभावी मुद्दे नहीं हैं वे भी अपने छोटे-मोटे प्रयासों से भीड़ जमा करने में सफल हो जाते हैं ! अब इस भीड़ के जमा होने के पीछे कोई ठोस बजह नहीं होती सीधे शब्दों में कहा जाए तो इस भीड़ के पीछे बढ़ती आबादी और बेरोजगारी एक बजह मानी जा सकती है या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आर्थिक मैनेजमेंट के आधार पर भी यह भीड़ इकट्ठा की जा रही है ! यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा कि यदि राजनैतिक व्यक्तित्वों के निकटतम नुमाइंदे भीड़ जुटाने का प्रयास जोर-शोर से न करें तो संभव है राजनैतिक व्यक्तित्वों व दलों की जगहंसाई हो जाए, यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि ऐसा मेरा व्यक्तिगत आंकलन है कि यदि भीड़ जुटाने के लिए धन व व्यक्तिगत संसाधनों का प्रयोग न हो तो भीड़ जुटा पाना बेहद कठिन होगा क्योंकि वर्त्तमान में बड़े से बड़े राजनैतिक नैतृत्व मुद्दों की नहीं वरन भीड़ की राजनीति को प्राथमिकता दे रहे हैं !

यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि मेरा मकसद किसी भी राजनैतिक व्यक्तित्व या राजनैतिक दल को आहत करने का नहीं है वरन वर्त्तमान राजनैतिक नैतृत्व का ध्यान भीड़ बनाम मुद्दों की राजनीति की ओर आकर्षित करने का है, मैं यह भी भलीभांति जानता और महसूस करता हूँ कि वर्त्तमान राजनैतिक नैतृत्व भी यह भलीभांति जानते व समझते हैं ! इन गंभीर हालात में भी यदि राजनैतिक नैतृत्व व राजनैतिक दलों के एजेंडों में अमूल-चूल बदलाव नहीं आता है तो वह दिन दूर नहीं जब आम जनता का इन दलों पर से विश्वास पूर्णत: उठ जाए, आम जनता का वर्त्तमान राजनैतिक कार्य प्रणाली से दिन व दिन उठ रहा विश्वास बेहद चिंतनीय ही कहा जा सकता है ! वर्त्तमान राजनैतिक सोच व जनमानस की सोच में बढ़ रहा अविश्वास आने वाले दिनों में गंभीर राजनैतिक व सवैधानिक बदलाव को इंगित कर रहा है यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि अब समय आ गया है कि वर्त्तमान राजनैतिक नैतृत्व गंभीरतापूर्वक चिंतन व मनन कर उपयोगी कदम उठाएं !

एक ओर जहां राजनैतिक व्यक्तित्वों व राजनैतिक दलों को भीड़ जुटाने के लिए आर्थिक मैनेजमेंट का सहारा लेना पड़ता है अर्थात लोगों के घर घर तक गाडी पहुंचवा कर तथा आने-जाने के समय भीड़ की व्यक्तिगत जरूरतों का भी ख्याल रखते हैं तब कहीं जाकर उतनी भीड़ इकट्ठी हो पाती है जिससे वे जगहंसाई से बच सकें ! वहीं दूसरी ओर जन लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के नैतृत्व में आयोजित आन्दोलन अपने आप में एक मिसाल हैं जिनमें लोगों की भीड़ खुद-ब-खुद उमड़ रही थी, एक दिन - दो दिन नहीं वरन आन्दोलन के अंतिम पड़ाव तक लोगों का हुजूम देखते बन रहा था, इन दोनों आन्दोलनों ने - चाहे वह जंतर-मंतर का हो या रामलीला मैदान का, यह स्पष्ट कर दिया है कि लोगों की भीड़ या दूसरे शब्दों में कहें जनसैलाव किसी प्रायोजित कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था वरन एक गंभीर मुद्दे को लेकर संजीदा लोगों का स्वस्फूर्त समर्थन था, भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल रूपी क़ानून की मांग को लेकर जो जनसैलाव देखने को मिला वह निश्चित ही एक ऐतिहासिक अध्याय कहा जा सकता है ! वर्त्तमान राजनैतिक नैत्रत्वों व दलों को यह मनन व चिंतन करना ही होगा कि अब समय भीड़ की राजनीति का नहीं वरन मुद्दों की राजनीति का आ गया है तथा इस दिशा में सकारात्मक पहल ही आवश्यकता है जो न सिर्फ राजनैतिक दलों वरन लोकतंत्र के लिए भी प्रभावकारी व हितकर है !

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

भ्रष्टाचार की पीड़ा का प्रकटीकरण था यह।