Friday, April 15, 2011

तुम क्या हो ...

तुम क्या हो ...
मैं समझना चाहता हूँ !
कभी तुम में, दिखती है, मुझे
सूर्य सी गर्मी
कभी तुम
चाँद सी शीतल लगे हो !

तुम क्या हो ...
कभी तुम एक-सी, दिखती नहीं मुझको
कभी देखा, तुम
झरने सी खिल-खिल, बहती लगे हो
तो, कभी, फिर
झील-सी गहरी लगे हो !

तुम क्या हो, क्यों हो
यही, मैं समझना चाहता हूँ
कभी छू-कर
मुझे, तुम छाँव सी शीतल करे हो
तो, कभी, फिर
छूकर, मुझे
तुम आग का शोला करे हो !

तुम क्या हो, क्या-क्या, नहीं हो
कभी तुम, रात में, मुझको
काम की देवी लगे हो
सुबह देखूं, तो तुम मुझको, फिर
लक्ष्मी की मूरत लगे हो !

तुम क्या हो ...
बताओ, तुम, खुद मुझे ही
या, फिर, मुझे
तुम, कुछ घड़ी का वक्त, जज्बा, हौसला, दे दो
मैं तुम में डूबकर, तुम्हें समझना चाहता हूँ !

कि -
तुम, क्यों, मुझे
चाँद, सूरज, धरा, अम्बर, नीर, पवन, पुष्प, सुगंध
नारी, अप्सरा, देवी, सी लगे हो !!

5 comments:

निवेदिता श्रीवास्तव said...

अच्छी भावाभिव्यक्ति......

vandana gupta said...

बहुत सुन्दर रचना।

संजय भास्‍कर said...

क्या बात है..बहुत खूब....बड़ी खूबसूरती से दिल के भावों को शब्दों में ढाला है.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

वाह वाह! क्या कहने....

shama said...

Nihayat khoobsoorat bhaav aur unkee abhiwyakti!Wah!