यूँ तो इल्जाम लगाने वालों ने कोई कसर नहीं छोड़ी
मगर ... तेरी आँखों में बेगुनाही झलक रही थी मेरी !
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उफ्फ .. सच्च .. वक्त गुजरा कैसे ! .. हमें भी पता नहीं
लफ्फाजियों का दौर था, .... लफ्फाजियों का दौर है !!
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वो कुछ इस कदर लिपटे दौड़ के जिस्म से मेरे,
कि ... फिर ..... मैं मैं न रहा ..... वो वो न रहे !
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फक्कड़ थे तो 'खुदा' थे
सल्तनत क्या मिली .. इंसा न रहे !
...
बस .. कुछ यूँ समझ लो
चापलूसी काम आ गई,
वर्ना ! आज वो ..
औंधे मुँह पड़े होते .... ?
...
अब तू
तजुर्बे-औ-हुनर की बात न कर,
कभी हम भी
मील के पत्थर थे हुजूर ....... ?