क्यों न "कलयुग का आदमी" बन जाऊं !
कलयुग में जी रहा हूं
तो लोगों से अलग क्यों कहलाऊं !!
बदलना है थोडा-सा खुद को
बस मुंह में "राम", बगल में छुरी रखना है !
ढोंग-धतूरे की चादर ओढ के
चेहरे पे मुस्कान लाना है !
झूठी-मूठी, मीठी-मीठी
बातों का झरना बहाना है
"कलयुग का आदमी" बन जाना है !!
फ़िर सोचता हूं -
कलयुग का ही आदमी क्यों ?
अगर न बना, तो लोगों को
"पान" समझ कर "चूना" कैसे लगा पाऊंगा !
एक औरत को पास रख कर
दूसरी को कैसे अपना बना पाऊंगा !!
क्या कलयुग में रह कर भी
खुद को बेवक्कूफ़ कहलवाना है !
अगर न बने कलयुगी आदमी
कैसे बन पायेंगे "नवाबी ठाठ" !
कहां से आयेंगे हाथी-घोडे
कैसे हो पायेगी एक के बाद दूसरी ...
दूसरी के बाद तीसरी ..... शादी हमारी !!
कैसे ठोकेंगे सलाम, मंत्री और संतरी
कैसे आयेगी छप्पन में सोलह बरस की !
कैसे करेंगे लोग जय जय कार हमारी
यही सोचकर तो "कलयुग का आदमी" बनना है !
लोगों से अलग नहीं
खुद को, अपने से अलग करना है !
मौकापरस्ती का लिबास पहनकर
झूठ-मूठ के फ़टाके फ़ोडना है !
बस थोडा-सा बदलना है खुद को
एक को सीने से लगाकर -
सामने खडी दूसरी को देखकर मुस्कुराना है !
"कलयुग का आदमी" बन जाना है !!
14 comments:
इस कामना के लिए शुभकामना।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
ढंग से कलयुग का आदमी बनना है तो आदमियत छोडनी होगी
स्वीकार है क्या
अरे नहीं भाई इस मामले में हम आपको कलयुग का आदमी बनने नहीं देंगे ...जो हैं वे बने रहें पर आप ...कविता में भी नहीं !
गुनाहगारों पे जो देखी रहमत-ए-खुदा
बेगुनाहों ने कहा हम भी गुनाहगार हैं।
संडे स्पेशल
ललित जी की बात पसंद आई।
वो शक्सियत ही क्या जिसे हवाओं के थपेड़े उड़ा ले जाएँ।
लोगों से अलग नहीं
खुद को अपने से अलग करना है
मौकापरस्ती का लिबास पहनकर
झूठ-मूठ के फ़टाके फ़ोडना है
बस थोडा-सा बदलना है खुद को
एक को सीने से लगाकर
सामने खडी दूसरी को देखकर मुस्कुराना है
"कलयुग का आदमी" का आदमी बन जाना है
wah1a !kya byangytmak baat kahi hai aapne .mai puree taraha se aapase sahamat hun!.
सुन्दर व्यंग्य।
लोगों से अलग नहीं
खुद को अपने से अलग करना है
Yah hui na gahare vyang ki baat!
bahut badiya hai... aapki kavita jara mujhe bhi margdarshan dijiye...
अब सोचता हूं
क्यों न "कलयुग का आदमी" बन जाऊं
कलयुग में जी रहा हूं
तो लोगों से अलग क्यों कहलाऊं
mera dil bhi yahi kahta hai
ग़ज़ब का हास्य और व्यंग का मिश्रण है ... कमाल की रचना ...
bahut badhiya bhai saheb
:) :)
काश ऐसा ही हो पाता ... पर शायद हर इन्सान एक ही मिटटी से गढ़ा न गया हो ... कविता बहुत सुन्दर है ... व्यंगात्मक और आज की दुनिया का सच उजागर करने वाला !
Post a Comment