समझते तो हैं हम मुहब्बत के सारे दस्तूर 'उदय'
बस, नासमझी सिर्फ इत्ती है, बयानी नहीं आती !
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सच ! इसे हम हंसी इत्तेफाक कैसे मान लें 'उदय'
कि वो, हर रोज अंजाने में टकरा जाते हैं हमसे !
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स्वयंभू लेखकों की, हर रोज किताबें छप रही हैं
पाठकों की किसे है परवाह, दुकानों की मौज है !
2 comments:
सब मौज में जी रहे हैं...
समझते तो हैं हम मुहब्बत के सारे दस्तूर 'उदय'
बस, नासमझी सिर्फ इत्ती है, बयानी नहीं आती !
bahut achchi lagi......
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