एक दूजे की दुम को, खुद ही ये सहला रहे हैं 
कोई काट के न फेंक दे इसलिए घवरा रहे हैं ! 
... 
'खुदा' जाने, ये कौन-सी बिरादरी के लोग हैं 
जो एक दूसरे को गुरु-गुरु कह रहे हैं !
... 
ये बहुत शातिर लोग जान पड़ रहे हैं 'उदय' 
बस, हाँ, ना, ना, हाँ, कर रहे हैं !
... 
रूठ जाओ या मान जाओ, किसे फर्क पड़ता है 
ये मत भूलो, ये खुदगर्जों का शहर है ! 
...
मैं और तुम ... कब तक ? 
कब होंगे ? ... हम !!
 
 
1 comment:
umda kathan
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