दो मित्र सत्यानंद और धनीराम एक साथ पढते-पढते, खेलते-कूदते, मौज-मस्ती करते हुये बचपने से जवानी की दहलीज पार करते हुये जीवन के रंगमंच पर प्रवेश किये ..... दोनों के स्वभाव में तनिक ही अंतर था सत्यानंद होशियार बुद्धिमान था और धनीराम चालाक बुद्धिमान .... दोनों ही जीवन यापन के लिये कामधंधे में लग गये .... होशियार का मकसद "नाम व प्रसिद्धि" कमाना था और चालाक का मकसद "धन-दौलत" कमाना था इसलिये वे दोनों अलग अलग राह पर निकल गये .....
..... चलते चलते समय करवट लेते रहा चार-पांच साल का वक्त गुजर गया, बदलाव के साथ ही दोनों की उपलब्धियां नजर आने लगीं चालाक मित्र "कार व मोबाईल" के मजे ले रहा था और होशियार मित्र छोटे-मोटे समारोहों में "मान-सम्मान" से ही संतुष्ट था ..... हुआ ये था कि चालाक मित्र अपनी चालाकी से एक-दूसरे को "टोपीबाजी" करते हुये "कमीशन ऎजेंट" का काम कर रहा था और दूसरा बच्चों को टयूशन पढाते हुये "लेखन कार्य" में तल्लीन था ...
.... समय करवट बदलते रहा, पांच-सात साल का वक्त और गुजर गया ... गुजरते वक्त ने इस बार दोनों मित्रों को गांव से अलग कर दिया, हुआ ये कि धनीराम गांव छोडकर देश की राजधानी मे बस गया और सत्यानंद वहीं गांव मे रहते हुये बच्चों को पढाते पढाते दो-चार बार राजधानी जरूर घूम आया .... समय करवट बदलते रहा, और पंद्रह-सत्रह साल का वक्त गुजर गया ....
.... इस बार के बदलाव ऎसे थे कि दोनों मित्र आपस में एक बार भी नहीं मिल सके थे दोनों अपने-आप में ही मशगूल रहे, पर इस बदलाव में कुछ बदला था तो "वक्त ने करवट" ली थी हुआ ये था कि चालाक मित्र "करोडपति व्यापारी" बन गया था और होशियार मित्र "लेखक" बन गया था, व्यापारी "हवाईजहाज" से विदेश घूम रहा था और लेखक राष्ट्रपति से लेखन उपलब्धियों पर "पुरुस्कार" ले रहा था ....
.... वक्त गुजरता रहा, जीवन के अंतिम पडाव का दौर चल पडा था दोनों ही मित्रों ने अपना अपना मकसद पा लिया था लेकिन बरसों से दोनो एक-दूसरे से दूर व अंजान थे ..... एक दिन चालाक मित्र अपने कारोबार के सिलसिले में अंग्रेजों के देश गया वहां साल के सबसे बडे जलसे की तैयारी चल रही थी उत्सुकतावश उसने जानना चाहा तो पता चला कि इस "जलसे" मे दुनिया की जानी-मानी हस्तियों को सम्मानित किया जाता है .... बताने बाले ने कहा कि इस बार तुम्हारे देश के "लेखक - सत्यानंद" को सर्वश्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है यह तुम्हारे लिये गर्व की बात होनी चाहिये ....
.... उसकी बातें सुनते सुनते "सेठ - धनीराम" की आंखें स्वमेव फ़ट पडीं ... वह भौंचक रह गया .... मन में सोचने लगा ये कौन सत्यानंद है जिसे सम्मान मिल .... समारोह में अपने बचपन के मित्र सत्यानंद को "सर्वश्रेष्ठ सम्मान" से सम्मानित होते उसने अपनी आंखों से देखा और खुशी से उसकी आंखें अपने आप छलक पडीं .... वहां तो धनीराम को अपने मित्र सत्यानंद से मिलने का "मौका" नहीं मिल पाया ..... दो-चार दिन में व्यवसायिक काम निपटा कर अपने देश वापस आते ही धनीराम सीधा अपने गांव पहुंचा ....
....... बचपन के मित्र सत्यानंद से मिलने की खुशी ..... सत्यानंद ने धनीराम को देखते ही उठकर गले से लगा लिया .... दोनों की "खुशी" का ठिकाना न रहा ..... धनीराम बोल पडा - मैने इतनी "धन-दौलत" कमाई जिसकी कल्पना नहीं की थी पर तेरी "प्रसिद्धि" के सामने सब "फ़ीकी" पड गई ..... आज सचमुच मुझे यह कहने में "गर्व" हो रहा है कि मैं "सत्यानंद" का मित्र हूं।
14 comments:
सिद्धांततः अत्यंत प्रेरक प्रसंग ...
nice
बढ़िया प्रसंग!!
bahut hi badhiyaa
बहुत बढिया प्रेरक प्रसंग
सत्य+आनंद के भी दिन आते हैं
आभार
bahut sundar,
maan samman se badhakar kuch bhi nahee hai....prerak prasaMg.
bahut hi badhiyaa
maan gaye shyam ji aapki lekhni ko
अत्यंत प्रेरक ।
अत्यंत प्रेरक और सारगर्भित लेख्।
बहुत ही प्रेरणा देती .. सत्कर्म का पाठ पढ़ाती अच्छी पोस्ट ...
bahut achee lagee ye laghu katha............
vichardharae alag par apanapan moujood............
aabhar.............
prerak katha.., vese ab esi rachnaye likhne ka dour bhi thamne lagaa he, aapka prayaas sarahniya he.
very very very readable
बहुत बढिया प्रेरक प्रसंग
आभार
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