Friday, October 28, 2016

अपने ही बुझा रहे थे घर के चिराग को ... ?

सच 'उदय', खूब बांटी गईं रेवड़ियाँ
पर.. किसी का मुंह मीठा न हुआ ?
...
चेले-चपाटे औ साहूकार करने लगें जब गुणगान
तब समझ लो 'उदय'... बहुत जल्द है बंठाधार ?
...
पहले चवन्नी-अठन्नी की भी शान थी
मगर अफसोस 'उदय',
आज ...... पांच-दस के नोटों का भी
कहीं कोई वजूद नहीं है ?
...
कहाँ कोई गैर था .. कहाँ कोई बेगाने थे
अपने ही बुझा रहे थे घर के चिराग को ?
...
उफ़ ! हिम्मत की तुम दरिंदगी तो देखो 'उदय'
कोई ताक में था.. कोई हाथ मलते रह गया ?

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