भले चाहे, छल औ बल जीत के आधार हों
लेकिन, फिर भी, जीत तो जीत है 'उदय' ?
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कहीं ख़ुशी, तो है कहीं मातम सा आलम
ये कैसी राजनीति है, ये कैसा लोकतंत्र है ?
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सुनते हैं, सब्र का फल कभी खट्टा नहीं होता
पर ये बात बेसब्रों को कौन समझाये 'उदय' ? कहीं ख़ुशी, तो है कहीं मातम सा आलम
ये कैसी राजनीति है, ये कैसा लोकतंत्र है ?
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सुनते हैं, सब्र का फल कभी खट्टा नहीं होता
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कहीं सन्नाटा, तो कहीं धमाल है
'उदय बाबा' ये कैसा गोलमाल है ?
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शब्दों की, छुट-पुट कारीगरी तो हमसे भी हो जाती है 'उदय'
इस नाते मजदूर कहलाने का हक, क्या हमारा नहीं बनता ? …
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