Friday, October 18, 2013

आज देश को देशी लोगों के शासन की जरुरत है ?

आज देश को देशी लोगों के शासन की जरुरत है ! 

कभी कभी मेरे जेहन में बड़ी अजीबो-गरीब बातें उमड़ पड़ती हैं जिनसे स्वयं मैं भी हतप्रभ हो जाता हूँ, ठीक उसी प्रकार ये बातें भी उमड़ पडी हैं जिनका मैं यहाँ जिक्र कर रहा हूँ, आप सोच रहे होंगे कि यह कैसा शीर्षक है अर्थात यह कैसा अजीबो-गरीब सवाल है कि आज देश को देशी लोगों के शासन की जरुरत है ! पर मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह एक ऐसा सवाल है जिसमें स्वत: जवाब भी शामिल है। मित्रों, यह सवाल नहीं है वरन सिर्फ एक मशवरा है, मशवरे से मेरा अभिप्राय यह है कि आज देश को ऐसे लोगों के शासन अर्थात नेतृत्व की जरुरत है जो पूर्णत: देशी हों अर्थात ऐसे सत्ताधारी जिन्होंने न सिर्फ देश में जन्म लिया हो वरन देश में शिक्षा-दीक्षा भी ली हो, जो देश की संस्कृति व परम्पराओं से परिचित हों, यहाँ परिचय का अभिप्राय टेलीविजन पर देखकर या पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर जानने व समझने से नहीं है वरन एक ऐसे परिचय से है जो रु-ब-रु हुआ हो, ठीक वैसा ही जैसा खेत में उतरने से पाँव में मिट्टी लगने से होता है, कुए से पानी निकाल कर पीने से होता है, नदि में डुबकी लगाकर नहाने से होता है, होली के समय रंग-गुलाल लगने से होता है, ईद के समय एक-दूसरे से गले लगने व सेंवई खाने से होता है, गुरुद्वारे में माथा टेकने से होता है, जो सड़क पर खड़े होकर गोल-गप्पे खाने से होता है, इत्यादि ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जिन्हें या जिनका अनुभव सिर्फ रु-ब-रु ही संभव है।  

यह कहते हुए मुझे ज़रा भी संकोच नहीं हो रहा है कि आज मैं न सिर्फ देख रहा हूँ वरन महसूस भी कर रहा हूँ कि आज देश में ज्यादातर ऐसे लोगों का शासन है अर्थात ऐसे लोग सत्ता में हैं अर्थात ऐसे लोगों के इर्द-गिर्द सत्ता का संचालन है जो विदेशों में पढ़े-बड़े हैं, ऐसे लोग जो न सिर्फ विदेशों में पढ़े-बड़े हैं वरन जिन्होंने सिर्फ विदेशी संस्कृति को ही देखा व जाना है, जिन्होंने सिर्फ वेलेंटाइन डे, हैप्पी न्यू ईयर व वीकेंड जैसे चलनों को ही जाना व भोगा है। ऐसे लोग जो होली को हुड़दंग समझते हों, जो गरीबी को अभिशाप समझते हों, देशी संस्कारों व परम्पराओं को बेफिजूल समझते हों, तब तो ऐसे लोगों से मिल गया हमें सुशासन ? अब जब ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता का संचालन है जो अप्रत्यक्ष रूप से विदेशी हैं तो फिर भला वे देशीपन को कैसे समझेंगे ? जिन्होंने देशीपन अर्थात गाँव, गलियों, खेतों, खलियानों, नदियों, कुओं, पंचों, पंचायतों, बैलगाड़ियों, बसों, रेलगाड़ियों, धूप, छाँव, इत्यादि को न देखा हो और न ही भोगा हो उनसे हम यह कैसे आशा कर सकते हैं कि वे देश को देशी शासन दे पायेंगे ? यह कैसे संभव हो पायेगा कि जो लोग सूट-बूट व टाई की संस्कृति में बड़े हुए हैं वे देशी टोपी, पगड़ी, गमछे, लुंगी, धोती-कुर्ते, इत्यादि के चलन व उनकी महत्ता को समझ पायें व उन्हें उनके अनुकूल महत्त्व व सम्मान दे पायें ? 

जी हाँ, न तो हम उनसे देशीपन की आशा कर सकते हैं और न ही वे हमारी आशाओं के अनुरूप देशी शासन दे पाने में सफल हो सकते हैं। ऐसे में, सुशासन की कल्पना हमारे लिए एक बेईमानी से ज्यादा कुछ नहीं है ? खैर, दोष किसी न किसी का तो जरुर है, कहीं न कहीं तो जरुर है, हम में है, व्यवस्था में है, शासन में है, चुनाव प्रक्रिया में है, या फिर हमारे संविधान में है ? ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब एक-दो दिन में मिलना मुश्किल है, एक-दो लोगों के साथ चर्चा-परिचर्चा पर भी मिल पाना मुश्किल है, इन सवालों के जवाबों के लिए हमें बड़े पैमाने पर एकत्रित होने की जरुरत है, चिंतन-मनन की जरुरत है, निष्कर्षों पर पहुँचने की जरुरत है, कठोर निर्णयों की जरुरत है। यदि आज हम सुशासन की जरुरत महसूस कर रहे हैं तो हमें निसंदेह एक कठोर राह पकड़नी होगी अन्यथा देश में देशी शासन मुश्किल है, हमारे अनुकूल शासन मुश्किल है, यदि हम वर्त्तमान शासन को देशी समझ रहे हैं तो यह एक मनगढ़ंत व दिखावटी कल्पना से ज्यादा कुछ भी नहीं है। आज जरुरत है खुद के जागने की व जनमानस को जगाने की, यदि अब भी हम नहीं जागे और कठोर निर्णय की दिशा में नहीं बढे तो आजादी और गुलामी का फर्क हम कभी नहीं समझ पायेंगे, आजादी व गुलामी का फर्क हमेशा पहेली बना रहेगा, यह तो वही बात हुई कि जन्म से अंधे के सामने कैसा अन्धेरा और कैसा उजाला ? अब यह सवाल मैं यहीं आपके लिए छोड़े जा रहा हूँ कि हम कब जागेंगे, कब आजाद होगें, कब देशी सुशासन पायेंगे ? 

2 comments:

Unknown said...

सशक्त समसामयिक आलेख |

मेरी नई रचना:- "झारखण्ड की सैर"

प्रवीण पाण्डेय said...

नगर केन्द्रित शासन से बाहर आकर गाँवों की सुध लेनी पड़ेगी।