Tuesday, October 15, 2013

राहुल गांधी कुशल व दूरदर्शी नेतृत्व की ओर अग्रसर ?

राहुल गांधी कुशल व दूरदर्शी नेतृत्व की ओर अग्रसर !

जहां तक मुझे लग रहा है कि राहुल गांधी को लोग बहुत हल्के में ले रहे हैं जबकि सच्चाई ये है कि वे निरंतर राजनैतिक परिपक्वता की ओर अग्रसर हैं, राहुल गांधी न तो पप्पू है, न ही बच्चा है, और न ही उतना नासमझ है जितना समझ रहे हैं लोग। आज भाजपा, सपा, बसपा, या अन्य वो राजनैतिक दल जो राहुल गांधी पर तरह-तरह की हास्यपूर्ण चुटकी लेने से बाज नहीं आते हैं, बाज नहीं आ रहे हैं, दरअसल ऐसे लोग एक प्रकार की राजनैतिक मांसिक कुंठा के शिकार हैं, सीधे व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो आज उन्हें राहुल गांधी की परिपक्वता हजम नहीं हो रही है जिसकी वजह से वे ऊल-जुलूल टिप्पणी कर रहे हैं। राहुल गांधी को मैं भी पिछले पांच-सात सालों से देख व सुन रहा हूँ, पहले के राहुल गांधी व आज के राहुल गांधी में जमीन आसमान का अंतर देखते ही नजर आ जा रहा है, आज मंच पर उनका बॉडी लेंगवेज देखते ही बनता है, आज वो जिस मुखरता के साथ वक्तव्य देते नजर आते हैं वह अपने आप में उनकी राजनैतिक परिपक्वता की ओर इशारा है, एक संकेत है कि वे निरंतर एक प्रभावशाली व आकर्षक राजनैतिक व्यक्तित्व के निर्माण की ओर अग्रसर हैं। अगर, फिर भी, ये सब देखने व सुनने के बाद उनके विरोधी उन्हें पप्पू, बच्चा, या नासमझ कह कर संबोधित कर रहे हैं तो मुझे उनकी समझदारी व नासमझदारी दोनों पर तरस आ रहा है। मैं आज कोई सील-सिक्का लगाकर या सीना ठोककर यह दावा नहीं कर रहा हूँ कि मेरा आंकलन सौ-टका खरा ही उतरेगा, लेकिन मेरा अनुमान है कि वह दिन दूर नहीं जब राहुल गांधी में हम एक समझदार व दूरदर्शी राजनैतिक व्यक्तित्व को रु-ब-रु देखें। आज जो झलक मुझे राहुल गांधी में दिखाई दे रही है वह निसंदेह भविष्य के एक कुशल राजनैतिक विकास पुरुष से मिलती जुलती सी है। लेकिन अन्य लोगों की तरह मैं भी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हूँ कि ये तो समय ही जानता है कि काल के गर्भ में क्या छिपा है।  

आज मेरा राहुल गांधी पर चर्चा करने का उद्देश्य मात्र इतना है कि राहुल गांधी आज के दौर के युवा राजनैतिक व्यक्तित्वों में से एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जो काफी समझ-बूझ के साथ धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं, न तो उनमें सत्ता की हब्सियों जैसी भूख दिखाई देती है और न ही वो जल्दबाजी जो आज के दौर के वरिष्ठ से वरिष्ठ नेता में बखूवी देखते ही नजर आ जाती है। जिस बात से आप सभी भलीभांति परिचित हैं उस बात का जिक्र में तनिक हिचक के साथ कर रहा हूँ, जरुरी है सिर्फ इसलिए चर्चा कर रहा हूँ कि राजनीति की बिसात पर कोई भी चीज निश्चित व स्थिर न कभी रही है और न ही कभी रहेगी, उतार-चढ़ाव व हार-जीत तो राजनीति के हिस्से हैं, कभी कोई जीतते जीतते हार भी जाता है तो कभी कोई हारते हारते जीत भी जाता है, इस तरह के उतार-चढ़ाव राजनीति में बेहद आम हैं, आज की राजनीति का केंद्रबिंदु अगर कुछ है तो सत्तारुपी कुर्सी है, जीत-हार है, आज हर कोई, हर पार्टी, सिर्फ इस जुगत में रहती है कि किसी न किसी तरह वह चुनाव जीत जाए और ऐन केन प्रकारण सत्ता रूपी परचम लहरा सके। इस हार-जीत के खेल में आज न तो कांग्रेस पीछे है और न ही भाजपा, और तो और 5, 10, 20, 30, 40, 50 सीटों पर जीतने वाली पार्टियां भी सत्तारुपी हार-जीत के खेल में कांग्रेस व भाजपा की भाँती कदम कदम पर नजर आ रही हैं, जो एक दूसरे के सामने सीना व ताल ठोकने से भी बाज नहीं आती हैं। सपा, बसपा, जेडीयू, आरजेडी, एनसीपी, लेफ्ट, तृणमूल कांग्रेस, बगैरह बगैरह के नेता भी आज प्रधानमंत्री पद की दौड़ में दौड़ते नजर आ जाते हैं। अब जब राजनैतिक दौड़ का प्रमुख उद्देश्य सत्ता हासिल करना व किसी न किसी तरह प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करने तक सीमित रह गया हो तब कुशल व दूरदर्शी राजनैतिक व्यक्तित्वों पर चर्चा करना एक तरह से बेईमानी जैसा ही कहा जाएगा।  

खैर, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता कि इस चर्चा के क्या निष्कर्ष निकाले जायेगें, मेरा मकसद तो साफ़-सुथरी चर्चा का है और आगे भी रहेगा। हाँ, मैंने चर्चा की शुरुवात राहुल गांधी से की थी जो मुझे याद है, आज राहुल गांधी को पप्पू, बच्चा व नासमझ की संज्ञा देने वाले विपक्षी दलों को व विपक्षी दलों के नेताओं को यह नहीं भूल जाना चाहिए कि जिस प्रकार राहुल गांधी आपके आंकलनरुपी पैमाने पर हैं ठीक उसी प्रकार आप सब भी राजनैतिक विश्लेषकों व जनता के पैमाने पर हैं। ये और बात है कि आज के तमाम राजनैतिक दल व उनके नेता किसी न किसी छोटी-बड़ी बात पर एक दूसरे का मजाक उड़ाने तक से बाज नहीं आते हैं, कईयों बार तो ऐसे भी नज़ारे देखने को बखूवी मिलते हैं जब कई नेता खुद ही अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनते नजर आ जाते हैं, यहाँ यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि ऐसे क्षण किसी मनोरंजन के कार्यक्रम से कम नहीं होते ? वैसे, एक दूसरे को नीचा दिखाना, पटकनी देने के मौकों को तलाशना व भुनाना, आरोप-प्रत्यारोप, छींटाकशी, हा-हा, ही-ही, हू-हू भी एक प्रकार से राजनीति के हिस्से ही हैं इसलिए इन पर गंभीर होना भी उचित नहीं है। हार-जीत, पटका-पटकी, झूमा-झटकी, चित्त-पट्ट, खुशी-गम के दौर राजनीति में आयेदिन आते-जाते रहते हैं, लेकिन इन सब के बीच हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि स्वच्छ व स्वस्थ्य राजनीति न सिर्फ हमारे लिए वरन लोकतंत्र के लिए भी अत्यंत जरुरी है, लोकतंत्र की मजबूती व उज्जवल भविष्य के लिए बेहद जरुरी है, इसलिए हम राजनीति को सिर्फ राजनीतिबाजों के भरोसे नहीं छोड़ सकते, गर हम उनके भरोसे हो गए या रह गए तो फिर भगवान ही जाने लोकतंत्र, राजनीति और हम तीनों किस हाल में नजर आयें ? 

अगर आज हम राहुल गांधी पर चर्चा कर रहे हैं तो हमें आज के दौर के दूसरे राजनैतिज्ञों को भी चर्चा में शामिल करना होगा नहीं तो हमारी चर्चा एकांगी होकर रह जायेगी, औचित्य विहीन होकर रह जायेगी। यदि आज सत्तारूढ़ कांग्रेस राहुल गांधी के इर्द-गिर्द घूमते नजर आ रही है तो दीगर पार्टियां भी अपने-अपने नेता नरेन्द्र मोदी, मुलायम सिंह, मायावती, शरद पवार, नितीश कुमार, जयललिता, बगैरह बगैरह के इर्द-गिर्द ही नजर आती हैं। लेकिन, अगर, हम आज इन सभी नेताओं पर केन्द्रित होकर बात करें तो इन सभी में लगभग एक बात बिलकुल एकजैसी है वह बात यह है कि इन सभी में सत्ता की तत्परता चरम पर है, सत्ता की लालसा शिखर पर है। राहुल गांधी भी इससे अछूते नहीं हैं लेकिन राहुल गांधी में सत्ता की यह तत्परता व्यक्तिगत न होकर दलगत है अर्थात अभिप्राय यह है कि राहुल गांधी में सत्तारुपी कुर्सी पर बैठने की उतनी तत्परता नहीं है जितनी दूसरे अन्य नेताओं में नजर आती है लेकिन राहुल गांधी को यह भी गवारा नहीं है कि कोई दूसरा दल कांग्रेस को पछाड़ कर आगे निकल जाए। ओवरआल, यह लड़ाई सत्ता के लिए ही है, सत्ता के इर्द-गिर्द ही है, इसलिए कोई भी किसी भी मौके को भुनाने से बाज नहीं आयेगा, हरेक मौके को अपने पक्ष व हित में करने के लिए किसी भी तरह के साम, दाम, दंड, भेद के नुस्खे को अजमाने से नहीं चूकेगा। वैसे भी राजनीति तो राजनीति है, भला क्यों कोई किसी से पीछे रहे, भला क्यों कोई किसी से हेटा खाए, भला क्यों कोई किसी की टांग खीचने से पीछे रहे, भला क्यों कोई सत्तारुपी कुर्सी अपने हाथ से जाने दे ? 

इन सब के बीच अर्थात राजनैतिक साम, दाम, दंड, भेद की नीति व कूटनीति के बीच हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि देश, जनता, समाज, लोकतंत्र, ऐसे महत्वपूर्ण विषय हैं जिन्हें न तो भुलाया जा सकता है और न ही ये किनारे रखे जा सकते हैं। जब ये विषय हमारे सामने आते हैं तो स्वमेव ही कुशल व दूरदर्शी राजनैतिक व्यक्तित्व रूपी सवाल हमारे सामने खडा हो जाता है, और जब हम इस सवाल के जवाब की ओर बढ़ते हैं तो स्वाभाविक रूप से वर्त्तमान सक्रीय राजनैतिक नेतृत्व सामने आ जाते हैं, और फिर हम घूम-फिर कर पुन: राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी, मायावती, ममता, मुलायम, जयललिता, शरद पवार, नितीश कुमार, इत्यादि के इर्द-गिर्द पहुँच जाते हैं, और हाँ, इन सब के बीच हमें नए उभरते नेता अरविन्द केजरीवाल को भी नहीं भूल जाना चाहिए। उपरोक्त ये सभी राजनैतिक व्यक्ति वर्त्तमान राजनीति के केंद्रबिंदु हैं, यदि आज हमें कुशल व दूरदर्शी नेतृत्व की संभावना को तलाशना होगा तो इनमें से ही तलाशना होगा, कम से कम आज तो हमारे समक्ष इनके अलावा कोई और विकल्प नहीं है, खुदा-न-खास्ता अगर कोई और विकल्प हमारे सामने अचानक प्रगट हो जाए तो खुदा खैर है। यदि हम आज की चर्चा करें, आज के नेतृत्वों की चर्चा करें, आज के राजनैतिक परिवेश पर चर्चा करें तो निसंदेह राहुल गांधी व नरेद्र मोदी एक दूसरे के आमने-सामने नजर आते हैं लेकिन इन दोनों में कोई ऐसा जादुई माद्दा नजर नहीं आता जो आगामी लोकसभा के नतीजों में अपनी पार्टी को पूर्ण बहुमत तक पहुंचा दें, सिर्फ परिवर्तन के नजरिये व पैमाने पर आज नरेन्द्र मोदी की चर्चा इक्कीस आंकी जा रही है। लेकिन जहां तक मेरा आंकलन है कुशल, दूरदर्शी, निष्पक्ष व पारदर्शी नजरिये व पैमाने पर यदि तुलना की जाए तो निर्विवाद रूप से अरविन्द केजरीवाल इन सब से बेहतर हैं जो राजनीति को राजनीति की नजर से न देखकर समाजसेवा की नजर से देखते हैं। 

आज यह कहते हुए मुझे ज़रा भी संकोच नहीं हो रहा है कि राहुल गांधी व अरविन्द केजरीवाल ऐसे दो युवा राजनैतिक नेतृत्व के रूप में उभर रहे हैं जिनमें भविष्य की उज्जवल राजनीति व मजबूत लोकतंत्र की झलक देखी जा सकती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति में कभी-कभी सारे के सारे आंकलन व पूर्वानुमान भी धरे के धरे रह जाते हैं किन्तु यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ कि मैं न तो कोई भविष्यवाणी जाहिर कर रहा हूँ और न ही कोई ज्योतिषीय भविष्य, मेरा उद्देश्य इनके वर्त्तमान के आधार पर भविष्य का अनुमान व आंकलन मात्र है। मेरी चर्चा का विषय कुशल व दूरदर्शी नेतृत्व है और जब मैं इस विषय पर आज के दौर के राजनैतिक नेतृत्वों पर नजर दौडाता हूँ तो मेरी नजर राहुल गांधी व अरविन्द केजरीवाल पर जाकर ही ठहरती है। अब जब यहाँ युवा नेतृत्वों की बात हो ही रही है तो देश के वर्त्तमान दो युवा मुख्यमंत्रियों अखिलेश यादव व उमर अबदुल्ला को हम कैसे छोड़ सकते हैं किन्तु यह सर्वविदित है कि इन दोनों युवा मुख्यमंत्रियों को सत्ता विरासत में मिली है, अब भले चाहे इन्हें सत्ता विरासत में मिली हो पर ये सत्ता का संचालन तो कर ही रहे हैं अत: इन पर टिप्पणी भी आवश्यक है, इन दो युवाओं के सन्दर्भ में मुझे यह कहने में आज ज़रा भी संकोच महसूस नहीं हो रहा है कि ये दोनों युवा मुख्यमंत्री अब तक कोई ऐसी युवा छाप व सन्देश नहीं छोड़ पाए हैं जिसकी चर्चा की जाए, आज इनसे सिर्फ इतनी ही आशा की जा सकती है कि ये भविष्य में कुछ व्यक्तिगत छाप छोड़ने में अवश्य सफल हों। लेकिन आज मैं यह निसंकोच, निर्भय, निष्पक्ष व निस्वार्थ भाव से टिप्पणी कर रहा हूँ कि यह आज का एक संभावित सच है कि वह दिन दूर नहीं जब राहुल गांधी व अरविन्द केजरीवाल को हम देश के शीर्ष पदों पर कुशल नेतृत्व करते हुए देखें। 

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