वे ... कूद पड़ते हैं ...
झूम उठते हैं ... लपक पड़ते हैं !
जब भी देखते हैं ...
किसी, ... महिला मित्र की पोस्ट ...
फेसबुक पर !
फिर ... भले चाहे ...
पोस्ट ...
बे-सिर-पैर की ही क्यों न हो !
उन्हें तो ... बस ...
लाईक औ कमेन्ट की, होती है जल्दी !
जल्दी ... हो भी क्यों न ..
डर होता है ... उन्हें ...
पिछड़ जाने का ... बिछड़ जाने का !
इसलिए -
घूमते रहते हैं ... मंडराते फिरते हैं ...
रात-दिन ...
हाजिरी ... देने की फिराक में !
न सिर्फ बूढ़े-खूसट, लौंडे-लपाड़े ...
वरन ... अच्छे-खासे सम्पादक-प्रकाशक भी ...
जय हो ... फेसबुक बाबा ... जय हो ??
1 comment:
यही फेसबुकिया संस्कृति बन गयी है।
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