सच ! ये तो 'सांई' में रम जाने का असर है
कि - अब हमें अपनी भी धुन नहीं रहती !!
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इधर हम लिख रहे हैं, उधर तुम पढ़ रहे हो
फासले, ..................... यूँ कम हो रहे हैं !
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आँगन आँगन देव विराजे, आँगन आँगन भाव-भजन हैं
फिर जात-धर्म के मसलों पर, क्यूँ हम सब गूंगे-बहरे हैं ?
2 comments:
आँगन आँगन देव विराजे, आँगन आँगन भाव-भजन हैं
फिर जात-धर्म के मसलों पर, क्यूँ हम सब गूंगे-बहरे हैं ? बहुत खूब !
संवादों से मन मानेंगे..
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