वो तो हम तन-औ-मन से जहरीले हो गए हैं 'उदय'
वर्ना, जहर के सौदागर, कभी के जीत गए होते ?
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खामों-खां तुम नाम में उलझे हुए हो
मुन्नी ... कब की सियानी हो गई है ?
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उफ़ ! क्या मिला मंजिलें तान के हमको
जब नींद भी चैन की आती नहीं उनमें ?
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अब इन खंडहरों में, लोग क्या ढूंढ रहे हैं 'उदय'
यादों-औ-जख्मों के सिबाय यहाँ रक्खा क्या है ?
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