Saturday, June 16, 2012

जाति, धर्म, मजहब ...

बहरापन ... 
जब तक जी चाहे ... 
तब तक ... 
चीखते रहो ... चिल्लाते रहो ... 
सरकारें ... सुनें, या न सुनें ?
पर 
कोई न कोई तो होगा, जो -
सुनेगा ... जरुर सुनेगा 
क्योंकि - 
हर एक शख्स ... शहर का 
बहरा नहीं होगा ??
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डगर ...
चलते रहो - बढ़ते रहो 
न देखो 
तुम मुड़कर पीछे 
कभी भी ... राह में !
जिन्होंने -
सांथ छोड़ा है 
उनकी 
मंजिल नहीं है ये डगर !!
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जाति, धर्म, मजहब ... 
चले आओ, मुझे तुम क़त्ल कर दो 
और तुम्हें मैं क़त्ल कर दूँ !
खून से लाल कर दें इस जमीं को 
अब यहाँ -
कौन, फूलों को उगाना चाहता है ? 
जिसे देखो वही - 
जाति, धर्म, मजहब की बात करता है 
अमन की ... 
शान्ति की ... 
अब यहाँ किसको जरुरत है ?? 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

बाँट बाँट कर काट रहे सब..