नव रचना की ओर अग्रसर पुस्तक - "क्या प्यार इसी को कहते हैं ?" ... इसी पुस्तक के कुछ अंश -
" ...
तूफानी रात तो जैसे तैसे गुजर गई, पर दोनों ... नेहा और प्रेम अंजान रहे कि क्या हुआ, क्यों रात तूफ़ान की तरह करवट बदलते रही ... एक तरफ नेहा तो दूसरी तरफ प्रेम ... दोनों के दोनों सुबह होने पर भी कुछ बेचैनी महसूस कर रहे थे ... दरअसल बेचैनी का सबब कुछ और नहीं था उन दोनों के अन्दर समाया हुआ एक दूसरे के प्रति प्यार था जिससे शायद वे दोनों ही अंजान थे ... नेहा अपने दोस्त प्रेम को अपनी सहेली के सामने नीचा न देखना पड़े शायद इसलिए वह उसे "किस" करने की ट्रेनिंग दे देती है ... वह इस बात से अंजान रहती है कि एक दोस्त की भी कुछ मर्यादाएं होती हैं जिसे वह दोस्त के रूप में पार नहीं कर सकती ... किन्तु वह खुद यह नहीं जानती है कि वह खुद भी प्रेम से प्यार करती है शायद प्यार होने की अंदरुनी ताकत ही उसे प्रेम को "किस" करना सिखाने को मजबूर कर देती है ... ठीक इसी प्रकार जहां प्रेम, जो निधी के छुअन मात्र से झनझनाने लगता था वह नेहा के एक बार कहने व समझाने पर नमूने के रूप में हिम्मत पूर्वक नेहा को "किस" कर लेता है ... यह दोनों के बीच बचपन की दोस्ती के दौरान अन्दर ही अन्दर पनप रहे प्यार का ही नतीजा है जो दोनों एक दूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार हो गए तथा "किस" लेने व देने में सफल भी रहे ..."
लेखन जारी है पूर्णता की ओर ...
1 comment:
bhaut khub....
Post a Comment