Saturday, July 9, 2011

अचरज ...

तुम करते रहो
अचरज
मुझे समझने, समझाने में
भूलने, याद करने में !

सच ! मैं ...
कुछ भी तो नहीं हूँ
सिवाय
एक अक्स के तेरे !

कभी तू डूब जाता है
मुझमें
कभी कहता है
मुझे डूब जाने को !

फर्क क्या है
तेरे, या मेरे
डूब जाने में
शायद, कुछ भी नहीं !

फिर भी होता है
तुझे
अचरज
हर घड़ी, हर पल !

क्यों, किसलिए -
सिर्फ इसलिए
कि -
मैं एक स्त्री हूँ ... !!

10 comments:

vandana gupta said...

बहुत खूब कहा।

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर कविता....

संजय भास्‍कर said...

 अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

मस्त है उदय भाई।

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत बढ़िया सर.
------------
कल 10/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अच्छा चिंतन मंथन है ..

बालकिशन(kishana jee) said...

naari ek sahnsheel wo murat ai jo astha se bhari hai

شہروز said...

साहित्य में कम लोग हैं जिन्होंने ज़िंदगी को निकट से देख अपनी बात राखी है. सच्ची पोस्ट!
हमज़बान की नयी पोस्ट http://hamzabaan.blogspot.com/2011/07/blog-post_09.html में आदमखोर सामंत! की कथा ज़रूर पढ़ें

ved prakash said...

zindgi ki sachi datan hai sir jo ap ne likha hai

shyam gupta said...

सच ! मैं
कुछ भी तो नहीं हूँ
सिवाय
एक अक्स के तेरे---
--सत्य बचन --पर क्या सब स्त्रियाँ ये मानती हैं...आज..