अचरज
मुझे समझने, समझाने में
भूलने, याद करने में !
सच ! मैं ...
कुछ भी तो नहीं हूँ
सिवाय
एक अक्स के तेरे !
कुछ भी तो नहीं हूँ
सिवाय
एक अक्स के तेरे !
कभी तू डूब जाता है
मुझमें
कभी कहता है
कभी कहता है
मुझे डूब जाने को !
फर्क क्या है
तेरे, या मेरे
डूब जाने में
शायद, कुछ भी नहीं !
डूब जाने में
शायद, कुछ भी नहीं !
फिर भी होता है
तुझे
अचरज
हर घड़ी, हर पल !
हर घड़ी, हर पल !
क्यों, किसलिए -
सिर्फ इसलिए
कि -
मैं एक स्त्री हूँ ... !!
10 comments:
बहुत खूब कहा।
बहुत सुन्दर कविता....
अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
मस्त है उदय भाई।
बहुत बढ़िया सर.
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कल 10/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
अच्छा चिंतन मंथन है ..
naari ek sahnsheel wo murat ai jo astha se bhari hai
साहित्य में कम लोग हैं जिन्होंने ज़िंदगी को निकट से देख अपनी बात राखी है. सच्ची पोस्ट!
हमज़बान की नयी पोस्ट http://hamzabaan.blogspot.com/2011/07/blog-post_09.html में आदमखोर सामंत! की कथा ज़रूर पढ़ें
zindgi ki sachi datan hai sir jo ap ne likha hai
सच ! मैं
कुछ भी तो नहीं हूँ
सिवाय
एक अक्स के तेरे---
--सत्य बचन --पर क्या सब स्त्रियाँ ये मानती हैं...आज..
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