मगर तू है, बहुत कुछ है !
फर्क गर है, दोनों में
जमीं और आसमां सा है !
तू डरता है, बुलाने से
मैं आने में, सहमता हूँ !
सच ! नहीं डरता मैं आने से
तेरी, ऊंची हवेली में !
चिंता है, तो बस इतनी
कहीं सिर फूट न जाए
तेरी चौखट से टकरा कर !!
...
सच ! नहीं डरता मैं आने से, तेरी ऊंची हवेली में
कहीं सिर फूट न जाए, तेरी चौखट से टकरा कर !
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जमीं और आसमां सा है !
तू डरता है, बुलाने से
मैं आने में, सहमता हूँ !
आने को, तो मैं चला आता
बिना बुलाये, महफ़िल में !
बिना बुलाये, महफ़िल में !
सच ! नहीं डरता मैं आने से
तेरी, ऊंची हवेली में !
चिंता है, तो बस इतनी
कहीं सिर फूट न जाए
तेरी चौखट से टकरा कर !!
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सच ! नहीं डरता मैं आने से, तेरी ऊंची हवेली में
कहीं सिर फूट न जाए, तेरी चौखट से टकरा कर !
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3 comments:
सच ! नहीं डरता मैं आने से, तेरी ऊंची हवेली में
कहीं सिर फूट न जाए, तेरी चौखट से टकरा कर !
दिल को छूती पंक्तियां।
दिल के करीब से गुजरती हुई रचना।
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विलुप्त हो जाएगा इंसान?
ब्लॉग-मैन हैं पाबला जी...
यह डर मन में बनाये रहना चाहिये।
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