उसने सजदे-पे-सजदा,
और मैंने गुनाह-पे-गुनाह किये थे
क़यामत सा तूफां था,
मेरे गुनाहों से कश्ती डगमगा
और उसके सजदे से संभल रही थी
आज इम्तिहां की घड़ी थी
उसके सजदे और मेरे गुनाह
'खुदा' के सामने थे
तूफां था, कश्ती थी
किसे उठाना, किसे छोड़ना
जद्दो जहद की घड़ी थी
घंटों तूफां चलता रहा
मौत की घड़ी में भी
वो सलामती के लिए सजदा
और मैं जां के लिए
खुद को कोसता रहा
उसके सजदे को सुन ले 'खुदा'
यही सोच मेरे हाथ भी
खुद व् खुद सजदा करने लगे
'खुदा' ने रहमत बरती
तूफां ठहर गया
मौत की घड़ी में आज
मैं भी सजदा सीख गया
लम्बी उम्र में न सीख पाया था
आज क्षण भर में तूफां मुझे
न सिर्फ सजदा और सजदे का असर
वरन 'खुदा' का दीदार भी करा गया !
10 comments:
है कोई, जिसके सम्मुख सब सर झुकते हैं।
सुन्दर प्रस्तुति
उदय जी इस बेहतरीन कविता के लिए बधाई स्वीकार करें
हर आदमी को एक ना एक दिन तो उस की शरण मे जाना ही पडता है तो अच्छा है कि तुफां से पहले ही चले जायें
वाह वाह ……………बस यही वो पल होता है जब इंसान झुकता है……………बेहतरीन प्रस्तुति।
बहुत खूबसूरत भाव हैं ....ज़िंदगी में कष्ट आते हैं तो इंसान भगवान की शरण में ही जाता है ...
बहुत खूब. रचना आपकी बहुत ही अच्छी लगी. शुभकामनाएं
ai sundar post
लाजवाब.......
आज क्षण भर में तूफां मुझे
न सिर्फ सजदा और सजदे का असर
वरन 'खुदा' का दीदार भी करा गया !
अतिसुन्दर भावाव्यक्ति , बधाई के पात्र है
बेहद ज़बरदस्त लिखा है....
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