Wednesday, November 17, 2010

दीदार ...

उसने सजदे-पे-सजदा,
और
मैंने गुनाह-पे-गुनाह किये थे
क़यामत सा तूफां था,
मेरे
गुनाहों से कश्ती डगमगा
और
उसके सजदे से संभल रही थी
आज इम्तिहां की घड़ी थी
उसके सजदे और मेरे गुनाह
'खुदा' के सामने थे
तूफां था, कश्ती थी
किसे उठाना, किसे छोड़ना
जद्दो जहद की घड़ी थी
घंटों तूफां चलता रहा
मौत की घड़ी में भी
वो सलामती के लिए सजदा
और मैं जां के लिए
खुद को कोसता रहा
उसके सजदे को सुन ले 'खुदा'
यही सोच मेरे हाथ भी
खुद व् खुद सजदा करने लगे
'खुदा' ने रहमत बरती
तूफां ठहर गया
मौत की घड़ी में आज
मैं भी सजदा सीख गया
लम्बी उम्र में सीख पाया था
आज क्षण भर में तूफां मुझे
सिर्फ सजदा और सजदे का असर
वरन 'खुदा' का दीदार भी करा गया !

10 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

है कोई, जिसके सम्मुख सब सर झुकते हैं।

Kunwar Kusumesh said...

सुन्दर प्रस्तुति

Deepak Saini said...

उदय जी इस बेहतरीन कविता के लिए बधाई स्वीकार करें

हर आदमी को एक ना एक दिन तो उस की शरण मे जाना ही पडता है तो अच्छा है कि तुफां से पहले ही चले जायें

vandana gupta said...

वाह वाह ……………बस यही वो पल होता है जब इंसान झुकता है……………बेहतरीन प्रस्तुति।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत भाव हैं ....ज़िंदगी में कष्ट आते हैं तो इंसान भगवान की शरण में ही जाता है ...

ज़मीर said...

बहुत खूब. रचना आपकी बहुत ही अच्छी लगी. शुभकामनाएं

Anamikaghatak said...

ai sundar post

गौरव शर्मा "भारतीय" said...

लाजवाब.......

Sunil Kumar said...

आज क्षण भर में तूफां मुझे
न सिर्फ सजदा और सजदे का असर
वरन 'खुदा' का दीदार भी करा गया !
अतिसुन्दर भावाव्यक्ति , बधाई के पात्र है

Shah Nawaz said...

बेहद ज़बरदस्त लिखा है....