मैं भ्रष्ट हूँ, भ्रष्टाचारी हूँ
जाओ, चले जाओ
तुम मेरा, क्या उखाड़ लोगे !
चले आये, डराने, डरता हूँ क्या !
आ गए, डराने, उनका क्या कर लिया
जो पहले सबकी मार मार कर
धनिया बो-और-काट कर चले गए !
चले आये मुंह उठाकर
नई-नवेली दुल्हन समझकर
आओ देखो, देखकर ही निकल लो
अगर ज्यादा तीन-पांच-तेरह की
तो मैं पांच-तीन-अठारह कर दूंगा !
फिर घर पे खटिया पर बैठ
करते रहना हिसाब-किताब !
समझे या नहीं समझे
चलो फूटो, फूटो, निकल लो
जो पटा सकते हो, पटा लेना
जो बन सके उखाड़ लेना !
मेरे साब, उनसे बड़े साब
और उनके भी साब
सब के सब खूब धनिया बो रहे हैं
क्या कभी उनका कुछ उखाड़ पाए !
चले आये मुंह उठाकर
मुझे सीधा-सादा समझकर
फिर भी करलो कोशिश
कुछ पटाने की, उखाड़ने की !
शायद कुछ मिल जाए
नहीं तो, चुप-चाप चले आओ
दंडवत हो, नतमस्तक हो जाओ
कुछ न कुछ देता रहूंगा
तुम्हारा भी खर्च उठाता रहूंगा !
क्यों, क्या सोचते हो
है विचार दंडवत होने का
गुरु-चेला बनने का
कभी तुम गुरु, कभी हम गुरु
कभी हम चेला, कभी तुम चेला
या फिर, हेकड़ी में ही रहोगे ?
ठीक है, तो जाओ, चले जाओ
उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !!
18 comments:
सिर्फ एक बात... बहुत सही...
सच, इनका कुछ नही हो सकता
सारे चोर चोर मौसेरे भाई है
किसी का कुछ उखाड नही सकते
बेहतरीन प्रस्तुति
Bilkul Sahi vakai chor chor mausere bhayi hain. Inkka sachmuch koyi kuchh nahin ukhad sakta.
.. ... ... उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !!!
......उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !
ला-जवाब" जबर्दस्त!!
सशक्त लेखन, पर अब तो यही स्वर सुनायी पड़ते हैं हर ओर से।
हिला नही सकते उखाडने की तो बात करना बेकार है
यह भी सच है, और अब कड़वा नहीं लगता। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार-श्री गुरुवे नमः
धनिया बोना ....बहुत सशक्त ...
सही है .. ..इनका कोई का उखाड़ सकत है इनकी है मिलीजुली सरकार ...
कटु सत्य... आज के विचारों पर बेहतरीन कटाक्ष
क्यों, क्या सोचते हो
है विचार दंडवत होने का
गुरु-चेला बनने का
कभी तुम गुरु, कभी हम गुरु
कभी हम चेला, कभी तुम चेला
आज की राजनिती का यही सच है। अच्छी रचना के लिये बधाई।
achha laga
umda tevar............
उदय जी सत्य कहूँ तो अगर ऊपर के १३ लोगों ने कमेंट्स नहीं दिए होते तो शायद मैं कभी भी हिम्मत नहीं कर पता पर अब उनके पदचिन्हों पर चलते हुए अपने दिल की बात कह ही दूँ.
उदय जी शानदार कविता लिखी है. पहले पैरा की अंतिम दो लाइने तो वास्तव में गजब हैं. धनिया बो देने का जो प्रतीकात्मक प्रयोग आपने किया है वो अन्यत्र दुर्लभ है. कविता का शीर्षक तो खैर सभी को साफ़ साफ़ सन्देश दे ही रहा है ... उखाड़ सको तो उखाड़ लो....
वाह जनाब ! मजा आ गया....कमाल की मौलिकता.
थोथे साहित्यकारों के मुहँ पर जोर का तमाचा है आपकी ये कविता.
आभार स्वीकार करें.
आपको देवउठनी के पावन पर्व पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
बेहतरीन प्रस्तुति!
Dhamaaka
ज़बरदस्त!
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