एक मन था
जो बेचैन हुआ था
क्यों था
ये पता नहीं था
कब तक रहती
पीड़ा मन में
और कब तक रहता
संशय मन में
कब तक मैं समझाता मन को
और कब तक
मन समझाता मुझको
कब तक रहता सन्नाटा
और कब तक रहती खामोशी
मौन टूट पडा था मेरा
हां कहकर
फिर मौन हुआ था
तब तक मन तो
झूम उठा था
एक नई सुबह
नई भोर हुई थी
नई राह पर चल पडा था
मन आगे
और पीछे मैं था
एक नई मंजिल की ओर !
6 comments:
वाह,विस्वास के साथ आगे बढते हुए कदम अच्छे लगे। निराशा का दामन छोड़ कर आशा के साथ बढते हुए नई मंजिल को पाने की आकांक्षा सराहनीय है।
बस मन स्थिर हो जाए, तो मंजिल दूर नहीं।
बहुत अच्छी कविता
आभार
बहुत अच्छी कविता
बहुत सुंदर कविता
धन्यवाद
बढ़िया है..इसी सकारात्मकता के साथ बढ़े चलिए.
बहुत बढिया!
sundar prastuti !
aabhar !
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