खुबसूरती तो खुबसूरती है ... फ़िर खुबसूरती को अश्लीलता की निगाह से क्यों देखते हैं हम ! हम यह क्यों नही स्वीकार करते कि जिसे हम अश्लीलता के रूप में अभिव्यक्त कर रहे हैं वह दर-असल खुबसूरती है, जिसे हम सब देखना चाहते हैं और पसंद भी करते हैं ... जो देखने में सुन्दर है वह अभिव्यक्त करते समय क्यों अश्लील हो जाती है ... क्यों, आखिर कब तक हम बे-वजह ही अश्लीलता का राग अलापते रहेंगे ...
... क्या स्वर्ग लोक में खुबसूरत अप्सराएं नहीं थी ... क्या राजा-महराजाओं के काल में नांच-गाने का चलन नहीं था ... क्या मूर्तिकार खुबसूरती का पुजारी नहीं था ... क्या चित्रकार की उंगलियां खुबसूरती के ईर्द-गिर्द केन्द्रित नहीं थीं ... क्या कवि की कल्पनाएं खुबसूरती की कायल नहीं थी ... जमीं से आसमां तक सब खुबसूरती के दीवाने रहे हैं फ़िर क्यों आज खुबसूरती को अश्लीलता का अमली-जामा पहना कर बेवजह ही ढोल-नगाडे की तरह पीटम-पीट में लगे हैं ... क्या हम भी उसी खुबसूरती के कायल नहीं हैं, अगर हैं तो फ़िर ये ढोंग-धतूरा क्यों, किसलिये !!!
... औरत हर युग, हर काल में खुबसूरती की देवी रही है और आगे भी रहेगी ... जब अप्सराएं नांचती-गाती हैं तो सभी मंत्रमुग्ध ... जब एक मूर्तिकार स्त्री के निर्वस्त्र रूप को साकार रूप देता है तो लाजवाब ... और जब एक चित्रकार स्त्री की निर्वस्त्र खुबसूरती को भिन्न-भिन्न कोण से अभिव्यक्त करता है तो वाह वाह ... फ़िर आज फ़िल्मी पर्दे पर या फ़िर रेंप-शो में खुबसूरती चार-चांद लगाती है तो वह अश्लील कैसे हो जाती है ... क्या हम बे-वजह ही अश्लीलता का राग अलाप रहे हैं ... क्या हम "मुंह में राम, बगल में छु्री" कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं ...
... क्या हम स्त्री की खुबसूरती के दीवाने नहीं हैं ... क्या हमें खुबसूरत यौवना मनभावन नहीं लगती ... अगर लगती है तो फ़िर क्यों हम बे-वजह ही उसे अश्लील कह देते हैं ... औरत कुदरत की सबसे अहम व खुबसूरत रचना है जिसके इर्द-गिर्द ही यह दुनिया केन्द्रित है और रहेगी !!
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