शेर - 78
कहां अपनी, कहां गैरों की बस्ती है
जहां देखो, वहीं पे बम धमाके हैं।
शेर - 77
लिखते-लिखते क्या लिखा, क्या से क्या मैं हो गया
पहले जमीं , फिर आसमाँ, अब सारे जहां का हो गया।
शेर - 76
सजा-ए-मौत दे दे, या दे दे जिंदगी
चाहे अब न ही कह दे, मगर कुछ कह तो दे।
कहां अपनी, कहां गैरों की बस्ती है
जहां देखो, वहीं पे बम धमाके हैं।
शेर - 77
लिखते-लिखते क्या लिखा, क्या से क्या मैं हो गया
पहले जमीं , फिर आसमाँ, अब सारे जहां का हो गया।
शेर - 76
सजा-ए-मौत दे दे, या दे दे जिंदगी
चाहे अब न ही कह दे, मगर कुछ कह तो दे।
12 comments:
बहुत ही अछे शेर हैं!! सीधे जख्मी करते हैं!! असल में ये बब्बर शेर हैं !!
बहुत बढ़िया!
बहुत खुब जनाब बहुत अच्छे.
धन्यवाद
कहां अपनी, कहां गैरों की बस्ती है
जहां देखो, वहीं पे बम धमाके हैं
lajawaab sher kaha hai uday ji ....
आशार के बीच यह नम्बरिंग निगाह पकड़ के पढ़ने का प्रवाह रोकती है| नम्बरिंग ऊपर जहाँ शेर -78 लिखा है वहां पर '' शेर - 76-78 '' के तरीके से लिखा जा सकता है ;वैसे जैसे आप की इच्छा |
शेर गहरे लगे ,अच्छे लगे {इस लिए राय दी थी }
न तो मैं कोई गैर था,
न तो मैं कोई अपना था,
लुटा क्यूँ कर मेरा काफिला,
तेरे इसी मोड़ पे आकर ||
Pahle dono sher khas taur par achche lage.
Ap to bahut khubsurati se likhte hain...sundar abhivyaktiyan.
"शब्द सृजन की ओर" के लिए के. के. यादव !!
कहां अपनी, कहां गैरों की बस्ती है
जहां देखो, वहीं पे बम धमाके हैं.....
aaj ki paida ko aapne is sher ke maadhyam se bakhubi ubhara hai..thanks
Wah aap to kamaal ke sher kahte hain
Likhte likhe kya likha ....... kamaal kaha hai
बहुत उम्दा शेर...बहुत बहुत बधाई....
सजा-ए-मौत दे दे, या दे दे जिंदगी
चाहे अब न ही कह दे, मगर कुछ कह तो दे।
वाह जी....बड़ी जालिम है....!!!
कहां अपनी, कहां गैरों की बस्ती है
जहां देखो, वहीं पे बम धमाके हैं।
bahut sahi kahaa!
umda sher hai!
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