Thursday, July 26, 2018

चड्डीधारी

लघुकथा : चड्डीधारी
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एक बार ... बालक नरेंद्र पर वक्त की मार ऐसी पड़ी कि उसका सब कुछ तबाह हो गया ... घर-द्वार बिक गया ... पत्नी अपनी चुड़ैल मां की बातों में आकर मायके चली गई ... कर्जदारों ने पेंट-शर्ट तक उतार ली ... इधर-उधर सोते-जगते भटकते-भटकते बनियान भी चिथड़े-चिथड़े होकर गिर गई ....

चड्डी पहने दर-दर की ठोकरें खाते नरेंद्र पर ..

पास से गुजर रहे 'बाबा' की नजर पड़ी ... बाबा ने कहा - बालक तेरा सब कुछ लुट गया है .. क्या अब भी तुझे कुछ आस है ? ... यदि नहीं .. तो ... ले पकड़, ये एक मुट्ठी राख .... इस चड्डी का त्याग कर अर्थात चड्डी को निकाल फेंक और राख मल ले बदन पर .... और चल, मेरे साथ हो ले .....

बालक नरेंद्र .. पत्नी व घर-द्वार रूपी यादों से .. अर्थात माया व मोह रूपी ख्यालों से बाहर निकला तब तक 'बाबा जी' अदृश्य हो चुके थे ... और मुट्ठी में बंद राख ने भी कोयले का रूप ले लिया था .... वहाँ एक आकाशवाणी गूँज रही थी .. "जब चड्डीधारी का ये हाल है तो दूसरों का क्या होगा" .... !!

~ उदय

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