Tuesday, December 29, 2015

ढ़ोंगी ...

कल ... एक ... कदम-कदम पे ... खुद को ...
'खुदा' कहते फिर रहे सज्जन से
मुलाक़ात हो गई,

पर ... वो ... शुरू-शुरू में ... कभी 'खुदा' ... तो कभी ढ़ोंगी लगे था मुझे,

पर ... शाम होते-होते
दूध का दूध और पानी का पानी हो गया
वो ढोंगी था, इसलिये ढ़ोंगी ही निकल गया,

हुआ यूँ कि -
पता जो पूँछा उसने हमारा
तो हमने अपना पता लिख के दे दिया उसको,

पर जब बात आई, ... उसके पते की ...
तो वो ... ( इधर-उधर नजरें मटकाते व सिर खुजाते हुए बोला )

लिक्खो मियाँ -
ग़ालिब के शहर में ... लाल किले के पीछे ...

झुमरी तलईय्या क्रमांक - 3 ... गली नं - 5 ..... खोली नं - 13 ...
जब चाहो तब पहुँच जाना ...
 
पर ये पता, किसी और को न बताना ... कहते हुये ...
हौले से ... बहुत हौले से ... फटा-फट ... फुर्र हो गया ???

~ श्याम कोरी 'उदय'

1 comment:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बेहद प्रभावशाली रचना......बहुत बहुत बधाई.....