न तो कोई हारा है, और न ही कोई जीता है
पर, मगर, जिसे देखो, है वही मुगालते में ?
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गर, हजम न भी हो तो कोई बात नहीं,
इक बार …
कड़वी दवा को भी तो आजमा के देखो ?
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साठ साल… साठ महिने
चलो … ये भी खूब रही ?
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अब हम भी 'उदय', उनके जैसे हो गए हैं
जुबां पे कुछ, दिल में कुछ और होता है ?
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गर ये तमाशा है, तो तमाशा ही सही
सड़क पे बैठने की, आदत पुरानी है ?
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2 comments:
बहुत ही सुन्दर
मित्रवर!गणतन्त्र-दिवस की ह्रदय से लाखों वधाइयां !
रचना अच्छी है !
वास्तव में कटुता के पीछे एक लाभकारी मधुरता छिपी होहै यदि उस में द्वेष-ईर्ष्या का समावेश न हो!
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