आग...
जिस्म की आग... जिस्म के भीतर
जलने दो, ... सुलगने दो ...
शीत ... बहुत है बाहर
किसी न किसी के काम आयेगी ??
...
ईमान ...
सल्तनतें ... मिट गईं,
बादशाहतें टूट गईं
गर कुछ ...
बचा है, ... बचा रहा ...
तो बस,
ईमान की खुशबू ...
आज तक ...
अब तक ...
अमर है फिजाओं में ?
...
...
...
जी चाहता है 'उदय', उसे... तनिक पकड़ के हिला दूँ
साला ........ बैठ झूठ की बुनियाद पे इतरा रहा है ?
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आओ, चलें, बदल दें... हम पैमाने उम्र के
अब, पंद्रह में पैंतीस के काम मुमकिन हैं ?
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ऐंसा सुनते हैं 'उदय', कि - वो एक आला दर्जे के पत्रकार हैं
पर, हमने तो उन्हें, दलाली के सिबा कुछ करते नहीं देखा ?
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पुरुष्कृत हुए हैं तो उनमें कुछ तो बात होगी जरुर
वर्ना, गोबरों की भी.... रोटियाँ बनती हैं कभी ??
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बुझदिलों की शान-औ-सुरक्षा में बहादुर खड़े हैं
उफ़ ! क्या गजब तंत्र है, कैसा अजब मंत्र है ?
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वो अपने जिगर के जख्मों को, कुछ इस तरह सहला रहे हैं
उफ़ ! खुद ही लिख रहे हैं, ...... और खुद ही छपवा रहे हैं ?
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कुछ फर्जी लोगों के फर्जी किस्से तो सुनाओ 'उदय'
क्यों ?... जी कर रहा है ... ठहाके लगाये जाएँ ??
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अब तो, जब जी चाहेगा तब ही चाहेंगे तुम्हें
आगे, .................. जैसी तुम्हारी मर्जी ?
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किस्से तो बे-वजह के ही हैं 'उदय'
पर, उनपे मचा बाजिव धमाल है ?
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खरीदे गए, बेचे गए, बेचे गए, खरीदे गए
इस तरह, वो.......... मालामाल हो गए ?
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बेरहम, ........................ या बेवफा
अब तुम ही कहो, क्या नाम दें तुमको ?
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कुकुरमुत्तों को, ....... कुत्तों की उपाधी से मत नवाजो 'उदय'
एक वह ही तो हैं, जिनको किसी के शह की दरकार नहीं है ?
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अपनी तो, जब भी हुई थी सुबह, उनके आगोश में हुई थी
पर अब, ... बगैर आगोश के,......... सुबह होती कहाँ है ?
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जब तक ढकी थी आबरू उसकी, कहीं कोई कीमत नहीं थी
कपडे फेंकते ही,......... आबरू............ बाजार बन गई ?
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1 comment:
यथार्थ चिन्तन
आभार
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