जिनकी आन के लिए हमने तलवार उठाई थी 'उदय'
गर, वही खामोश हों, तो क़त्ल हम किसका करें ??
...
लू की लपटों में भी, हम गाँव में सो जाते थे अक्सर
पर आज, शहर की चांदनी रातें, भी सोने नहीं देतीं !
...
साहित्य में 'उदय', क्या जातिगत भेद-भाव की गुंजाईश है ?
शायद नहीं ! पर हाँ, किसे इंकार है बुनियादी जी-हुजूरी से ??
2 comments:
सबकी दुनिया के अपने अपने रंग..
wah.....sundar
Post a Comment