Thursday, February 2, 2012

चाहत ...

तुम दौड़कर, सिमट आईं
बांहों
में !

मैं खामोश, खुद को, और तुम्हें
संभालता रहा !

तुम निढाल हुईं, बिखरने लगीं
रेत
सी !

तुम्हें, सहेजना, संभालना पडा
बांहों में !

सच ! कैसे बिखरने देता, तुम्हें
चाहत जो है !!

4 comments:

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर सार्थक रचना। धन्यवाद।

***Punam*** said...

very romantic....

vidya said...

yes!!!
very romantic..

प्रवीण पाण्डेय said...

बिखरने देना गुनाह है...