कुछ ख़त पड़े थे
दराज में
किसी दिन मैंने खुद उन्हें
सहेज सहेज के रखे थे
किसी की याद में ...
जब जी चाहता
जब मन करता
दराज से निकाल-निकाल के -
पढ़ लेता था
छू लेता था
टटोल लेता था
याद कर लेता था किसी को
खो जाता था किसी में !
उनमे बचपन की लुका-छिपी
और जवानी की -
गर्म साँसों का मिश्रण था
कुछ भय था
कुछ चाह थी
कुछ प्यार का अनोखापन था
मिलने की -
और बिछड़ने की यादें भरी थीं उनमें
आज, न चाहकर भी -
सारे ख़त दराज से निकाल कर
सामने रख के जला दिए
राख को फूंक मार के उड़ा दिया !
शायद ! अब कोई -
याद नहीं आयेगा मुझे
क्या करूंगा अब, याद कर के उसे
जब वो
रहा ही नहीं
आज मालुम हुआ कि -
उसने दुनिया छोड़ दी है
परसों ही -
मुक्तिधाम में उसे मुक्ति दे दी गई !
सुनकर -
आँखें डब-डबा गईं मेरी
जाते-जाते उसने
संदेशा भी भेजा है -
दिल से, मुझे, सॉरी कहा है !!
2 comments:
भावुक करने वाली रचना।
बहुत ही सुन्दर रचना।
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