Tuesday, September 6, 2011

... कहीं-न-कहीं तो ये डगर जाएगी !

शायद कहीं कहने-सुनने, देखने-समझने में चूक हुई होगी
वरना ! आँखों का क्या, सदा ही डब-डबाई होती हैं !!
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था कुछ अंधेरा वहीं पर, जहां से उजाला था
बुझ गया चिराग, फिर अंधेरा ही अंधेरा था !
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कच्चे, खट्टे, पिलपिले, अधपके, नादां कलाकार
उफ़ ! कौन जाने, कब, कौन, क्या गुल खिला दे !
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मेरे मुल्क में, मेरे ही लोग, चोर, खुदगर्ज, भ्रष्ट हुए हैं
सच ! कम से कम अंग्रेज भ्रष्ट तो नहीं थे !!
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कभी समेटने, तो कभी सहेजने में वक्त गुजर जाता है
'उदय' तुम ही बताओ, किस घड़ी तुम्हें मैं प्रेम करूं !!
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जब तलक धरती के भीतर, धधकते आग के शोले रहेंगे
सच ! तब तक गांधी, सुभाष, आजाद, जन्म लेते रहेंगे !
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बात कड़वी जो कही, तीर-सी जा घुस बैठी
बात मीठी, जानें, क्यूं बेअसर हो जाती है !
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जिन हांथों से करता रहा मैं गुनाह हर घड़ी
आज उन हांथों से, कैसे मैं इबादत कर लूं !
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'उदय' जाने, किस ओर, कहाँ तक, मेरी नजर जाएगी
पर इतना तो तय है, कहीं--कहीं तो ये डगर जाएगी !
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भीड़, जुनून, सुकून, थकान, और ये आराम के पल
उफ़ ! जाने कौन था, जो नजर डाले हुए था !!
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पप्पू बेगुनाह था, पप्पू के पापा बेगुनहगार थे
फिर कौन गुनहगार था, कौन गुनहगार है !

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कोई न कोई तो गुनहगार है।

सागर said...

behtreen prstuti...

संजय भास्‍कर said...

बहुत गहरी अभिव्यक्ति