बहुत हुआ, बहुत हो गया
अपमान, पर अब तो
तुम, मुझे बख्श दो
मार दो, जला दो, दफना दो
जो मन में आये, कर दो
इन हालात में, किससे कहूं
क्या कहूं, कैसे कहूं
कि मैं कितना असहाय हूँ !
कल की ही बात है
मेरे ही अंग
तीनों-चारों गुन्ताड में
विचार-मंथन में लगे थे
क्या करें, कैसे करें
बहुत हो-हल्ला हो रहा है
कुछेक चीखने-चिल्लाने पर
उतारू हो गए हैं
कहीं ऐसा न हो कि
फटने-फाड़ने पर उतर आएं
उन्हें, कोई उपाय, नहीं ...
पर, मुझे, है पता
कि वे उपाय खोज लेंगे
या फिर, खुद-ब-खुद
चिल्ल-पौं, थम जायेगी
पर मेरा क्या , मैं तो
शर्मसार होता ही रहूँगा
उफ़ ! ये भ्रष्टाचार ... कालाधन ...
सच ! मैं एक असहाय लोकतंत्र हूँ !!
4 comments:
सामयिक और सटीक चिंतन....
सादर...
Log asahay hoke baith jayenge to loktantr asahay hoga hee hoga!
बहुत सही ओर सच्ची बात कही आप ने अपनी रचना मे.
लोकतन्त्र बलवान हो।
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