Thursday, June 30, 2011

कफ़न का टुकड़ा ...

गर नहीं लड़ा मैं आज भयंकर तूफानों से
कल छोटी फूंको से भी मैं गिर सकता हूँ !

है कद-काठी मेरी, आज भले छोटी ही सही
पर जज्बातों के तपते तूफां लेकर चलता हूँ !

जब नहीं डरा, खुद के दहकते जज्वातों से
फिर कैसे झूठे अल्फाजों से डर सकता हूँ !

बंधने को बंध जाते, लोग प्रेम के बंधन में
मैं तो माँ धरती का कर्ज चुकाते चलता हूँ !

जब नहीं डरा लड़ने से, फिरंगी शैतानों से
फिर कैसे घर के हैवानों से डर सकता हूँ !

होंगे लोग मौत के डर से, घर से निकलें
मैं सिर पे बाँध कफ़न का टुकड़ा चलता हूँ !!

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