Wednesday, June 8, 2011

... था यकीं मुझको, सजा-ए-मौत मिलनी है ! !

काश ! होती या न भी होती, नफ़रत मुझे तुमसे
फिर भी था यकीं मुझको, सजा-ए-मौत मिलनी है !
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कोई मजबूर नहीं हैं, शौक से लहरा रहे हैं परचम
उफ़ ! आदत-सी पड़ गई है, अब छोडी नहीं जाती !
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मान, सम्मान, स्वाभीमान, दुहाई दे रहे हैं सब
सच ! उन्हें स-सम्मान, वहां से छूटना जो है !
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वो खुद डर डर कर, न जाने कब तलक, हमको डराएंगे
कोई जा बता दे उन्हें, हम सिर पे कफ़न बांध चलते हैं !
...
रीत न जाऊं डर है, रोज रोज बूँद बूँद झर जाने से
हूँ मैं सागर, एक छोटा-सा, शब्दों के संसार का !!