एक के बाद एक
पत्ते साख से, टूट टूट के
जमीं पे,
झड रहे होते हैं !
ये पतझड़ भी
देखते ही देखते
दरख़्त
ठीक वैसे ही, जैसे
झड रहे होते हैं !
ये पतझड़ भी
देखते ही देखते
दरख़्त
ठूंठ बन, सूखा सूखा सा
सामने होता है !
सामने होता है !
ठीक वैसे ही, जैसे
एक एक दिन, गुजरने पर
जीता जागता इंसान
बूढा
मरा मरा सा, बुझा बुझा सा
दिखाई देता है !
मरा मरा सा, बुझा बुझा सा
दिखाई देता है !
पर, होती है जिन्दगी उसमें
उस दरख़्त की तरह
जो पतझड़ निकलने पर
पुन: हरा-भरा हो जाता है !!
उस दरख़्त की तरह
जो पतझड़ निकलने पर
पुन: हरा-भरा हो जाता है !!
8 comments:
होती है जिन्दगी उसमें
उस दरख़्त की तरह
जो पतझड़ निकलने पर
पुन: हरा-भरा हो जाता है !!
..यही तो जिंदगी हैं .... कभी पतझड़ कभी वसंत.....
बहुत बढ़िया रचना
जीवन में पतझड़ और बसंत का क्रम चलता रहता है।
कभी पतझड़ कभी वसंत
.........चलता रहता है
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (7-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
MAN ME JEENE KI AAS HO TO PATJHAD NIKAL JAATAA HAI ....
BAHAR NISHCHAY AATI HAI .
NOTHING IS MORE PERMANENT THAN CHANGE ...!!
संवेदना से भरपूर बेहतरीन रचना ! काश बुजुर्गों के जीवन में भी ऐसे ही बहार आ पाती जैसे पतझड़ बीतने के बाद दरख्तों पर आ जाती है ! मानव जीवन में पतझड़ आने बाद अवसान ही उसकी नियति में होता है ! सुन्दर रचना ! बधाई एवं शुभकामनायें !
अच्छी प्रस्तुति ..
samvedansheel kram prastut kiya.
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