सच ! जब शर्मसार हो ही गए हैं
फिर क्या शर्म, और क्या बेशर्मी !
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मौक़ा मिला, भौंकने पे आमदा हो गए
कुत्ते की नस्ल है, कुत्ते की जात है !
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कोई समझाए हमें, ये कैसा शहर है
न कोई ज़िंदा, न मुर्दा नजर आए !
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सच ! कोई है जो आज भी दम-ख़म रखता है
वरना भ्रष्ट व्यवस्था में सब भ्रष्टाचारी हुए हैं !
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भ्रष्टाचारियों का समर्थन, बुद्धिजीवियों की शान हुई
उफ़ ! शायद आन उनकी चंद सिक्कों में बिक गई !
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कोई हमें अपना समझ, आया और ठहर गया
उफ़ ! गर न जाए, तो उसे कैसे हम जाने कह दें !
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बूढों को कोई कूडा-करकट न समझे
बुझते चिराग हैं, जलते हैं रात भर !!
4 comments:
वाह क्या बात है..शानदार उदय जी ...
वाह।
बहुत सुंदर ..
ये है आपकी बेहतरीन रचनाओं में से एक । इसे संभाल कर रखियेगा ।
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