गर औरत होना गुनाह है तो सुनो, मैं गुनहगार हूँ
जन्म देकर भी तुझे पोसा, सच ! मैं गुनहगार हूँ !
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कभी फुर्सत निकाल के पूंछना खुद से
क्या मिला है तुझे, भूल कर मुझको !
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वक्त की चाल में जो हम उलझे
न इधर के रहे, न उधर के रहे !
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कब जोर और कब जोर-जबरदस्ती की हमने
उफ़ ! तुम्हें देखना भी अब, गुनाह है हुआ !!
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अजब दस्तूर, रश्म-ओ-रिवाज हो चले हैं आशिकी के
सिवाय समझौते के, कहीं कुछ दिखता नहीं हमको !
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उफ़ ! कौन कहता है बंजर जमीं पे फूल खिल नहीं सकते
हौसले और जज्बे की मेहनत को, हर कोई समझे कैसे !
5 comments:
bahut khoob uday ji...
बहुत सूंदर रचना
गुनाह की स्वानुभूति.
करे कौन, भरे कौन...
सब के सब दमदार।
बहुत बढ़िया.......
लोग कहते है यह लिबास मेरा नहीं है शायद गलती से पहना होगा ...
अब तो मैं भी सोचने लगा हूँ की यह लिबास सच में मेरा है क्या
manish jaiswal
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