Saturday, April 16, 2011

... ख़्वाब रचे थे, मैंने भी !!

एक दिन, बैठे बैठे
ख़्वाब रचे थे, मैंने भी
सच ! उन ख़्वाबों में
सरल, सहज, सुलभ
संसार, बसाया था मैंने
भाईचारा, प्रेम, मिलन
के सारे बंधन, बांधे थे
जात, धर्म, रंग, रूप
ऊंच-नींच, नर-नारी में
भेद, नहीं रख छोड़े थे
एक दिन, बैठे बैठे
ख़्वाब रचे थे, मैंने भी !!

6 comments:

Unknown said...

kiya khwab hai....

jai baba banaras....

प्रवीण पाण्डेय said...

यही ख्वाब हम सबका हो।

अरुण चन्द्र रॉय said...

बहुत अच्छी कविता।

Shona said...

बहुत खूब उदय जी

राज भाटिय़ा said...

ख्वाब तो हम भी ऎसे ही देखते हे, धन्यवाद

Pratik Maheshwari said...

अल्लाह से दुआ है कि ऐसे ख्वाब सच हो जाएं.. और आशा करता हूँ कि ये ख्वाब आपने दिन में रचे थे.. क्योंकि दिन के सपने सच होते हैं :)

तीन साल ब्लॉगिंग के पर आपके विचार का इंतज़ार है..
आभार