देख सफ़र की, पथरीली राहें
दरख़्त तले की शीतल छाया
लग रही थी, तपती मुझको !
फिर, चलना था, और
आगे बढ़ना था मुझको
राहें हों पथरीली
या तपती धरती हो
मेरी मंजल तक तो, चलना था मुझको !
मेरी मंजल तक तो, चलना था मुझको !
कुछ पल सहमा, सहम रहा था
देख सुलगती, पथरीली राहें
फिर हौसले को, मैंने
सोते, सोते से झंकझोर जगाया !
पानी के छींटे, मारे माथे पर अपने
कदम उठाये, रखे धरा पर
पकड़ हौसला, और कदमों को
धीरे धीरे, चल पडा मैं !
पथरीली, तपती, सुलगती राहों पर
कदम, हौसले, धीरे धीरे
संग संग मेरे चल रहे थे
जीवन, और मंजिल की ओर !!
6 comments:
kyaa baat he uday bhaai aajkl to mmmblogistan ko apni rchnaaon se lune men lge hm mubark ho bhtrin rchnna he . akhtar khan akela kota rajsthan
अच्छी कविताये आपके ब्लोग्स पर , संवेदनशील बधाई
यह हौसला कायम रहे।
प्रेरणा देते हुये शब्द...
bahot badiya kavita hai
गुड
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