धुन से जब निकला मैं बाहर, फिर अपना न रहा
कौन जाने, किस घड़ी, कोई कह दे मुझे अपना !
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रोज मौक़ा नहीं होता, गुफ्तगू का शहर में
श्मशानी रश्मों के बीच, ये चर्चाएं आम हैं !
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चलो दो कदम, हम सांथ सांथ सफ़र कर लें
मंजिलों की ओर राहें, मिलकर सहज कर लें !
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मुद्दत हुई तुम्हें देखे, मिले, छुए हुए
सच ! तुम आज भी उतनी हंसी होगी !
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सच ! जो शब्द उमड़ पड़े जहन में, लगा मेरे हैं
जब कागजों पे उकेरे, तो सब तुम्हारे निकले !
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काश ! हम पर भी हमारी मर्जी होती
दो घड़ी बैठ के, तुम संग बातें करते !
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ज़रा ठहरो, ज़रा एतबार करो, हम मिलेंगे
सच ! ज़रा ये वक्त का तूफां तो ठहर जाने दो !
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अभी यौन सुख, शायद मिला नहीं है पूरा
तब ही तो पैर, एक जगह ठहरते कहाँ हैं !
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सच ! एक अर्सा हुआ, खड़े हैं बाजार में
इतना हुनर नहीं, खुद को बेच दें किसे !
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दिन भर अछूत थी, एक लड़की शहर की
हुई रात जैसे जैसे, लोग उसमें डूबने लगे !!
4 comments:
uday bhaai kyaa baat he aek se aek bhtrin gzlen mzaa aa gyaa . akhtar khan akela kota rajsthan
कडुवा सच ही तो लिखा है..
सच हमेशा कडुवा ही होता है
सच में कड़वा सच।
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