Monday, March 28, 2011

... हुई रात जैसे जैसे, लोग उसमें डूबने लगे !!

धुन से जब निकला मैं बाहर, फिर अपना रहा
कौन जाने, किस घड़ी, कोई कह दे मुझे अपना !
...
रोज मौक़ा नहीं होता, गुफ्तगू का शहर में
श्मशानी रश्मों के बीच, ये चर्चाएं आम हैं !
...
चलो दो कदम, हम सांथ सांथ सफ़र कर लें
मंजिलों की ओर राहें, मिलकर सहज कर लें !
...
मुद्दत हुई तुम्हें देखे, मिले, छुए हुए
सच ! तुम आज भी उतनी हंसी होगी !
...
सच ! जो शब्द उमड़ पड़े जहन में, लगा मेरे हैं
जब कागजों पे उकेरे, तो सब तुम्हारे निकले !
...
काश ! हम पर भी हमारी मर्जी होती
दो घड़ी बैठ के, तुम संग बातें करते !
...
ज़रा ठहरो, ज़रा एतबार करो, हम मिलेंगे
सच ! ज़रा ये वक्त का तूफां तो ठहर जाने दो !
...
अभी यौन सुख, शायद मिला नहीं है पूरा
तब ही तो पैर, एक जगह ठहरते कहाँ हैं !
...
सच ! एक अर्सा हुआ, खड़े हैं बाजार में
इतना हुनर नहीं, खुद को बेच दें किसे !
...
दिन भर अछूत थी, एक लड़की शहर की
हुई रात जैसे जैसे, लोग उसमें डूबने लगे !!

4 comments:

आपका अख्तर खान अकेला said...

uday bhaai kyaa baat he aek se aek bhtrin gzlen mzaa aa gyaa . akhtar khan akela kota rajsthan

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

कडुवा सच ही तो लिखा है..

नवीन said...

सच हमेशा कडुवा ही होता है

प्रवीण पाण्डेय said...

सच में कड़वा सच।