बढ़ रही थीं, शीत भी गिरने लगी थी
जर्द पत्तों को बिछा कर
हमने बिछौना कर लिया था !
बदन थक कर, चूर चूर
और आँखें भी निढाल थीं
आसमां में दूधिया चाँदनी
एक दिव्य स्वप्न -
मेरे जहन में अंकुरित था
मुझे
धीरे धीरे, आँखें थकान में मुंदने लगीं
मैं जर्द पत्तों के बिछौने पर
निढाल हो पसर गया
और ओढ़ ली चादर, मैंने हवाओं की !
ख़्वाब था, या हकीकत, क्या कहें
हम तो सो रहे थे
जर्द पत्तों को बिछा कर
हमने बिछौना कर लिया था !
बदन थक कर, चूर चूर
और आँखें भी निढाल थीं
आसमां में दूधिया चाँदनी
चहूँ ओर, मद्दम मद्दम, रौशनी बिखरी हुई थी !
एक दिव्य स्वप्न -
मेरे जहन में अंकुरित था
मुझे
उसके खिलने की लालसा, और बेसब्री थी !
धीरे धीरे, आँखें थकान में मुंदने लगीं
मैं जर्द पत्तों के बिछौने पर
निढाल हो पसर गया
और ओढ़ ली चादर, मैंने हवाओं की !
ख़्वाब था, या हकीकत, क्या कहें
हम तो सो रहे थे
सो गए थे
ओढ़ कर, चादर हवाओं की !!
6 comments:
bahut sundar... bahut khoob.
हम तो सो रहे थे
सो गए थे, ओढ़ कर
चादर हवाओं की !!
bahut hi sunder rachna
हम तो सो रहे थे
सो गए थे, ओढ़ कर
चादर हवाओं की !!
bahut hi sunder rachna
खूबसूरत , कोमल सी रचना
मन के गहरे भाव
उसी तरह के अच्छे लफ्ज़ ...
एक अच्छी रचना !!
बहुत खुब जी धन्यवाद
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