Sunday, November 28, 2010

राह ...

मैं क्या हूँ ! क्या नहीं !!
अब कोई मुझे समझाए ?

किस पथ पर, किन राहों पर
चलना है राह दिखाए !

उंच-नीच की डगर पकड़ ली
जीवन डग-मग जाए !

क्या जीवन, क्या लीला है
अब कोई मुझे समझाए ?

हार-जीत का खेल हुआ, क्या हारूं -
क्या जीतूं, ये समझ न आये !

कालचक्र और समयचक्र
दोनों मिलकर खूब सताएं !

अब क्या बोलूँ, अब क्या सोचूँ
जब कदम मेरे बढ़ आए !

कठिन डगर है, जीवन है
अब राह कोई दिखलाए !


मैं क्या हूँ ! क्या नहीं !!
अब कोई मुझे समझाए ?

11 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

Kunwar Kusumesh said...

क्या मैं हूँ , क्या नहीं
अब कोई मुझे समझाए !

किस पथ पर, किन राहों पर
चलना है राह दिखाए !

वर्तमान हालातों में ये सवाल सही है.

प्रवीण पाण्डेय said...

जीवन के मौलिक प्रश्न।

Deepak Saini said...

बेहतरीन कविता
प्रश्न सबके यही हैं
उत्तर तो स्वंय ही खेाजने पडेंगें

कडुवासच said...

@ deepak saini
... aap bhee kuchh madad karte to behatar hotaa !!!

मनोज कुमार said...

कई बार हम जीवन के चक्र में फंस जाते हैं तो ऐसे ही विचार मन में घूमते रहते हैं। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार::पूर्णता

arvind said...

vaah...bahut sundar kavita v prastuti...aabhaar

Sushil Bakliwal said...

जीवनपथ की उंच-नीच पर बढिया सार्थक कविता । लेकिन आपकी चिर-पिरचित हास्य विधा से विपरीत...

कडुवासच said...

@सुशील बाकलीवास
... kuchh nayaa likhane kaa prayaas karte rahtaa hoon ... shukriyaa !!!

ZEAL said...

बहुत कठिन प्रश्न पूछा है आपने।

ASHOK BAJAJ said...

अब क्या बोलूँ, अब क्या सोचूँ
जब कदम मेरे बढ़ आए !
बधाई !