मैं क्या हूँ ! क्या नहीं !!
अब कोई मुझे समझाए ?
किस पथ पर, किन राहों पर
चलना है राह दिखाए !
उंच-नीच की डगर पकड़ ली
जीवन डग-मग जाए !
क्या जीवन, क्या लीला है
अब कोई मुझे समझाए ?
हार-जीत का खेल हुआ, क्या हारूं -
क्या जीतूं, ये समझ न आये !
कालचक्र और समयचक्र
दोनों मिलकर खूब सताएं !
अब क्या बोलूँ, अब क्या सोचूँ
जब कदम मेरे बढ़ आए !
कठिन डगर है, जीवन है
अब राह कोई दिखलाए !
मैं क्या हूँ ! क्या नहीं !!
अब कोई मुझे समझाए ?
अब कोई मुझे समझाए ?
किस पथ पर, किन राहों पर
चलना है राह दिखाए !
उंच-नीच की डगर पकड़ ली
जीवन डग-मग जाए !
क्या जीवन, क्या लीला है
अब कोई मुझे समझाए ?
हार-जीत का खेल हुआ, क्या हारूं -
क्या जीतूं, ये समझ न आये !
कालचक्र और समयचक्र
दोनों मिलकर खूब सताएं !
अब क्या बोलूँ, अब क्या सोचूँ
जब कदम मेरे बढ़ आए !
कठिन डगर है, जीवन है
अब राह कोई दिखलाए !
मैं क्या हूँ ! क्या नहीं !!
अब कोई मुझे समझाए ?
11 comments:
nice
क्या मैं हूँ , क्या नहीं
अब कोई मुझे समझाए !
किस पथ पर, किन राहों पर
चलना है राह दिखाए !
वर्तमान हालातों में ये सवाल सही है.
जीवन के मौलिक प्रश्न।
बेहतरीन कविता
प्रश्न सबके यही हैं
उत्तर तो स्वंय ही खेाजने पडेंगें
@ deepak saini
... aap bhee kuchh madad karte to behatar hotaa !!!
कई बार हम जीवन के चक्र में फंस जाते हैं तो ऐसे ही विचार मन में घूमते रहते हैं। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार::पूर्णता
vaah...bahut sundar kavita v prastuti...aabhaar
जीवनपथ की उंच-नीच पर बढिया सार्थक कविता । लेकिन आपकी चिर-पिरचित हास्य विधा से विपरीत...
@सुशील बाकलीवास
... kuchh nayaa likhane kaa prayaas karte rahtaa hoon ... shukriyaa !!!
बहुत कठिन प्रश्न पूछा है आपने।
अब क्या बोलूँ, अब क्या सोचूँ
जब कदम मेरे बढ़ आए !
बधाई !
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