Wednesday, October 27, 2010

अब हुआ मजबूर हूँ, धूप में भी चल रहा हूँ !

रात में निकला नहीं था, सर्द की ठंडक के डर से
अब हुआ मजबूर हूँ, धूप में भी चल रहा हूँ !

जिन्हें हम भूलने बैठे, वो अक्सर याद आते हैं
जो हमको याद करते हैं, उन्हें हम भूल जाते हैं !

फलक से तोड़कर, मैं सितारे तुमको दे देता
पर मुझको है खबर, तुम उन्हें नीलाम कर देते !

चलो मिलकर बदल दें, नफरतों को चाहतों में
हमारे न सही, किसी-न-किसी के काम आयेंगी !
...

9 comments:

kshama said...

चलो मिलकर बदल दें, नफरतों को चाहतों में
हमारे न सही, किसी-न-किसी के काम आयेंगी !

Behad sundar!

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर भाव जी धन्यवाद

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत भाव से सजी है रचना .

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही अच्छी।

गौरव शर्मा "भारतीय" said...

bahut sundar........

मनोज कुमार said...

सरलता के बिना कोई व्‍यक्ति अन्‍य आत्‍माओं का सच्‍च स्‍नेह नहीं पा सकता।बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
विचार-नाकमयाबी

mridula pradhan said...
This comment has been removed by the author.
mridula pradhan said...

bahot achchi lagi aapki kavita.

M VERMA said...

चलो मिलकर बदल दें, नफरतों को चाहतों में
हमारे न सही, किसी-न-किसी के काम आयेंगी !

क्या नेक खयाल है