Friday, April 23, 2010

सृजन

शब्दों की भीड में
चुनता हूं
कुछ शब्दों को

आगे-पीछे
ऊपर-नीचे
रख-रखकर
तय करता हूं
भावों को

शब्दों की तरह ही
'भाव' भी होते हैं आतुर
लडने-झगडने को
कभी सुनता हूं
कभी नहीं सुनता

क्यॊं ! क्योंकि
करना होता है

सृजन
एक 'रचना' का

शब्द, भाव, मंथन
मंथन से ही
संभव है
सृजन
एक "रचना" का !

8 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

शब्द, भाव, मंथन
मंथन से ही
संभव है
सृजन
एक "रचना" का !


उम्दा कविता, शब्द मंथन की गहराई लिए हुए.

राज भाटिय़ा said...

शब्द, भाव, मंथन
मंथन से ही
संभव है
सृजन
एक "रचना" का !
जबाब नही जी, बहुत सुंदर लगा यह शब्द मंथन

दिलीप said...

sahi kaha sir rachna kaise likhte hai achcha samjhaya...

संजय भास्‍कर said...

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

M VERMA said...

शब्द, भाव, मंथन
मंथन से ही
संभव है
सृजन
एक "रचना" का !
और यह रचना भी सुन्दर मंथन का ही परिणाम है
बेहतरीन

मनोज कुमार said...

कविता का बाना पहन कर सत्य और भी चमक उठता है।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

आपने एक सुन्दर कविता के रूप में सृजन प्रक्रिया का सत्य सामने रखा है ! बहुत अच्छा लगा ...

shama said...

शब्दों की भीड में
चुनता हूं
कुछ शब्दों को

आगे-पीछे
ऊपर-नीचे
रख-रखकर
तय करता हूं
भावों को
Is tarah rachana ka nirmaan bada sukun deta hoga,haina?